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________________ ___ रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन 351 तेरे लिए जन्म अनेक में फिरत न पायों पार । महो मोह-मृग जल सरिता महं बोरयो हों बारहिं बार ।। इसी प्रकार सूर ने भी संसार को सेंमल के समान निस्सार और जीव को उस पर मुग्ध होने वाले सुआ के समान कहा है - रे मन मूरख जनम गंवायौं । करि अभिमान विषय रस गीध्यौ, स्याम सरन नहिं आयौ ॥१३ यह संसार सुआ सेमर ज्यौं, सुन्दर देखि लुभायी । चाखन लाग्यौ कई गई उड़ि, हाथ कछू नहिं आयौ ।। द्यानतराय ने उसे 'झूठा सुपना यह संसार। दीसत है जिसत नहीं हो बार' कहा और भूधरदास ने उसे 'रैन का सपना' तथा 'वारि-बबूल' माना। जगजीवन ने धन ‘धन की छाया' के साथ ही राग-द्वेष को ‘वगु पंकति दीरध' कहा। बनारसीदास ने तो संसार के स्वभाव को नदी-नाव का संयोग जेसा चित्रित किया है - चेतन तू तिहुकाल अकेला । तदी नाव संयोग मिले ज्यों त्यों कुटुम्ब का मेला । यह संसार असार रूप सब ज्यों पटखेलन खेला । सुख सम्पत्ति शरीर जल बुद बुद विनसत नाही बेला ।। इसी भाव से मिलता-जुलता सूर का पद भी दृष्टव्य है :हरि बिन अपनौ को संसार । माया लोभ मोह हैं छांडे काल नदी की धार । ज्यौं जन संगति होत नाव में रहिति न परलै पार । तैसैं धन-दारा-सुख सम्पत्ति, विछुरत लगै न बार । मानुष-जनम नाम नरहरि को, मिलै न बारम्बार ।।"
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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