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________________ 350 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना उन्होंने यह भी अनुभव किया है कि जिस प्रकार जीव और शरीर का सम्बन्ध समाप्त हो जाता है उसी प्रकार सभी आत्मीय जन भी बिछुड़ जाते हैं। माता-पिता, पत्नी, पुत्र, भाई आदि सभी लोक मृत व्यक्ति को जलाकर रोते-चिल्लाते वापिस चले जाते हैं परन्तु उसके साथ जाता कोई नहीं। जगजीवन ने इसलिए संसार को 'धन की छाया' बताकर पुत्र, कलत्र, मित्र आदि को 'उदय पुद्गल जुरि आया' कहा है। कबीर ने उसे सेमर के फूल-सा और दादू ने उसे सेमर के फूल तथा बकरी की भांति कहकर खण्ड-खण्ड वांटी जाने वाली पांखरी बताया है। जायसी ने संसार को स्वप्नवत्, मिथ्या और मायामय बतलाया है।' सूर ने इसी तथ्य को निम्नांकित रूप में व्यक्त किया है : जा दिन मन पंछी उड़ि जै है । जिन लौगन सौ नेह करत हैं तेई देखि धिने हैं। घर के कहत सकारे काठी भूत होई धरि खैहैं। नानक ने भी 'आध घड़ी कोऊ नहिं राखत धर तैं देत निकार" कहकर इसी भाव को व्यक्त किया है। जैन कवियों ने तो अनित्य भावना के माध्यम से इसे और भी अधिक तीव्र स्वर दिया है। पं. दौलतराम ने इस भौतिक पदार्थो के स्वभाव को 'सुरधनु चपला चपलाई कहा है।११ तुलसीदास ने भी संसार की असारता को निम्न शब्दों में चित्रित किया है में तोहि अब जान्यौ, संसार । बांधि न सकहि मोहि हरि के बल प्रगट कपट-आगार ।। देखत ही कमनीय, कछू नाहिन पुनि किए विचार । ज्यों बदली तरु मध्य निहारत कबहू न निकसत सार ।।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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