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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ
347 इष्टदेव के पंच-कल्याणकों का भी काव्यमय आध्यात्मिक वर्णन किया है। परम्पराओं को काव्यमाला में गूंथ देना उनकी विशेषता है। देवीदेवताओं द्वारा भगवान के माता-पिता की सेवा-सुश्रुषा, अर्चा-पूजा, उनके गर्भ में आते ही प्रारम्भ कर दी जाती है। जन्म होने पर कुबेर द्वारा निर्मित मायामयी ऐरावत पर बैठकर इन्द्र-इन्द्राणी भगवान के मातापिता के पास आते हैं और मायामयी बालक को मां के पास लिटाकर भगवान को पांडुक शिला पर ले जाकर एक हजार आठ कलशों से स्रान करते हैं। इसी तरह दीक्षा तप और निर्वाण का वर्णन भी जैन कवियों ने पारम्परिक मान्यताओं के साथ काव्यमयी वाणी में किया है। भूधरदास उसे वचनमगोचर मानते हैं - कहि थकैं लोक लख जीभ न सके वरन (भूधरविलास, पद ३९) और दौलतराम तृप्त होकर मुक्ति राह की
ओर बढ़ते हैं - 'दौलत नाहि लखे चख तृप्तहि सूझत शिववटवा' (दौलत विलास, पद ३९)। कविवर बनारसीदास ने शुद्धोपयोग को मलू नक्षत्र में उत्पन्न 'बेटा' का रूप देकर बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। उन्होंने कहा है कि जिस प्रकार मूल नक्षत्र में उत्पन्न बालक परिवार के विनाश का कारण होता है उसी प्रकार शुद्धोपयोग के उत्पन्न होने पर ममता, मोह, लोभ, काम, कोध आदि सारे विकार भाव ध्वस्त हो जाते हैं।
'मूलन बेआजायोरेसाधौ, जानैखोज कुटुम्ब सबखायोरेसाधो। जनमत माता ममता खाइ लोक व दोई भाई।। काम, क्रोध दोई काका खाये, खाई तृषना दाई। पापी पाप परोसी खायो अशुभ, करम दोई मामा। मान नगर को राजा खायो, फैल परौ सब गामा।। दुरमति दादी खाई दादौ, मुख देखत ही मूओ। मंगलाचार बजाये बाजे, जब यो बालक हुओ।