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________________ 348 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना नाम धरयौ बालक कौं भौंदू, रूप वरन कूछू नाहीं। नाम धरतें पांडे खये, कहत बनारसी भाई। (बनारसीविलास, पृ. २३८) इस प्रकार मध्यकालीन हिन्दी के जैन साधकों द्वारा लिखित विवाह, फागु और होलियां आदि आध्यात्मरस से सिक्त ऐसी दार्शनिक कृतियाँ हैं जिनमें एक ओर उपमा, उत्पेक्षा, रूपक, प्रीक आदि के माध्यम से जैन दार्शनिक सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया गया है वहीं दूसरी ओर तात्कालीन परम्पराओं का भी सुन्दर चित्रण हुआ है। दोनों के समन्वित रूप से साहित्य की छटा कुछ अनुपम-सी प्रतीत होती है। साधक की रहस्यभावना की अभिव्यक्ति का इसे एक सुन्दर माध्यम कहा जा सकता है। विशुद्धावस्था की प्राप्ति, चिदानन्द चैतन्यरस का पान, परम सुख का अनुभव तथा रहस्य की उपलब्धि का भी परिपूर्ण ज्ञान इन विधाओं से झलकता है। जैन साधकों की रहस्य-साधना में भक्ति, योग सहज भावना और प्रेमभावना का समन्वय हुआ है। इन सभी मार्गों का अवलम्बन लेकर साधक अपने परम लक्ष्य पर पहुंचा है और उसने परम सत्य के दर्शन किये हैं। उसके और परमात्मा के बीच बनी खाई पट गई है। दोनों मिलकर वैसे ही एकाकार और समरस हो गये जैसे जल और तरंग। यह एकाकारता भक्त साधक के सहज स्वरूप का परिणाम है जिससे उसका भावभीना हृदय सुख-सागर में लहराता रहता है और अनिर्वचनीय आनंद का उपभोग करता रहता है।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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