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________________ हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना बहिरात्मा में जीव जन्म मरण के कारण स्वरूप भौतिक सुख के चक्कर में भटकता रहता है । द्वितीयावस्था (अन्तरात्मा) में पहुंचने पर संसार के कारणों पर गम्भीरता पूर्वक चिन्तन करने से आत्मा अन्तरात्मा की ओर उन्मुख हो जाता है । फलतः वह भौतिक सुखों को क्षणिक और त्याज्य समझने लगता है । तृतीयावस्था (परमात्मा-ब्रह्मसाक्षात्कार) की प्राप्ति के लिए साधनात्मक और भावनात्मक प्रयत्न करता है । इन्हीं तीनों अवस्थाओं पर आगे के तीन अध्यायों में क्रमशः प्रकाश डाला है। पंचम परिवर्त में रहस्यभावना के बाधक तत्त्वों को स्पष्ट किया गया है । रहस्यसाधना का चरमोत्कर्ष ब्रह्मसाक्षात्कार है । साहित्य में इसको आत्म-साक्षात्कार, परमात्मपद, परम सत्य, अजर-अमर पद, परमार्थ प्राप्ति आदि नामों से उल्लिखित किया गया है । अतः हमने इस अध्याय में आत्म चिन्तन को रहस्यभावना का केन्द्र बिन्दु माना है । आत्मा ही साधना के माध्यम से स्वानुभूति पूर्वक अपने मूल रूप परमात्मा का साक्षात्कार करता है । हमने यहां रहस्यभाना के मार्ग के बाधक तत्त्वों को जैन सिद्धांतों के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है । उनमें सांसारिक विषय वासना शरीर से ममत्व, कर्मजाल, माया-मोह, मिथ्यात्व, बाह्याडम्बर और मन की चंचलता पर विचार किया है । इन कारणों से साधक बहिरात्म अवस्था में ही पड़ा रहता है। ___षष्ठ परिवर्त रहस्यभावना के साधक तत्त्वों का विश्लेषण करता है । इस परिवर्त में सद्गुरु की प्रेरणा, नरभव दुर्लभता, आत्मसंबोधन, आत्मचिन्तन, चित्त शुद्धि, भेदविज्ञान और रत्नत्रय जैसे रहस्यभावना के साधक तत्त्वों पर मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य के
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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