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________________ उपस्थापना 19 प्रकीर्णक काव्य - लाक्षणिक, कोश, गुर्वावली, आत्मकथा आदि। उपर्युक्त प्रवृत्तियों को समीक्षात्मक दृष्टिकोण से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सभी प्रवृत्तियां मूलतः आध्यात्मिक उद्देश्य को लेकर प्रस्फुटित हुई हैं । इन रचनाओं में आध्यात्मिक उद्देश्य प्रधान है जिससे कवि की भाषा आलंकारिक न होकर स्वाभाविक और सात्विक दिखती है । उसका मूल उत्स रहस्यात्मक अनुभव और भक्ति रहा है। चतुर्थ परिवर्त रहस्यभावना के विश्लेषण से सम्बद्ध है । इसमें हमने रहस्य भावना और रहस्यवाद का अंतर स्पष्ट करते हुए रहस्यवाद की विविध परिभाषाओं का समीक्षण किया है और उसकी परिभाषा को एकांगिता के संकीर्ण दायरे से हटाकर सर्वांगीण बनाने का प्रयत्न किया है । हमारी रहस्यवाद की परिभाषा इस प्रकार है - "रहस्यभावना एक ऐसा आध्यात्मिकसाधन है जिसके माध्यम से साधक स्वानुभूति पूर्वक आत्म तत्त्व से परम तत्त्व में लीन हो जाता है । यही रहस्यभावना अभिव्यक्ति के क्षेत्र में आकर रहस्यवाद कही जा सकती है । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि अध्यात्म की चरमोत्कर्ष अवस्था की अभिव्यक्ति का नाम रहस्यवाद है।" यहीं हमने जैन रहस्य साधकों की प्राचीन परम्परा को प्रस्तुत करते हुए रहस्यवाद और अध्यात्मवाद के विभिन्न आयामों पर भी विचार किया है । इसी सन्दर्भ में जैन और जैनतर रहस्यभावना में निहित अन्तर को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। ___ यहां यह भी उल्लेख्य है कि जैन रहस्य साधना में आत्मा की तीन अवस्थायें मानी गयी हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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