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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना रूप में वर्गीकृत करने का प्रयत्न किया है । चूंकि भक्तिकाल में निर्गुण और सगुण विचारधारायें समानान्तर रूप से प्रवाहित होती रही हैं तथा रीतिकाल में भी भक्ति सम्बन्धी रचनायें उपलब्ध होती हैं । अतः हमने इसका धारागत विभाजन न करके काव्य प्रवृत्यात्मक वर्गीकरण करना अधिक सार्थक माना । जैन साहित्य का उपर्युक्त विभाजन और भी संभव नहीं क्योंकि वहां भक्ति से सम्बद्ध अनेक धारायें मध्यकाल के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक निर्बाध रूप से प्रवाहित होती रही हैं । इतना ही नहीं, भक्ति का काव्य स्रोत जैन आचार्यों और कवियों की लेखनी से हिन्दी के आदिकाल में भी प्रवाहित हुआ है । अतः हिन्दी के मध्ययुगीन जैन काव्यों का वर्गीकरण काव्यात्मक न करके प्रवृत्यात्मक करना अधिक उपयुक्त समझा । इस वर्गीकरण में प्रधान और गौण दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों का आकलन हो जाता है।
जैन कवियों और आचार्यो ने मध्यकाल की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में पेठकर अनेक साहित्यिक विधाओं को प्रस्फुटित किया है । उनकी इस अभिव्यक्ति को हमने निम्नांकित काव्य रूपों में वर्गीकृत किया है - १. प्रबन्ध काव्य - महाकाव्य, खण्डकाव्य, पौराणिक काव्य,
कथा काव्य चरित काव्य, रासा साहित्य आदि। रूपक काव्य - होली, विवाहलो, चेतनकर्म चरित आदि। अध्यात्म और भक्तिमूलक काव्य - स्तवन, पूजा, चौपाई, जयमाला, चांचर, फागु, चूनडी, वेलि, संख्यात्मक, बारहमासा आदि। गीति काव्य - विविध प्रसंगों और फुटकर विषयों पर निर्मित गीत।