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उपस्थापना
17 इसके पश्चात् हमने मध्यकाल की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की है । जिसके अन्तर्गत राजनीतिक धार्मिक और सामाजिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट किया है । इसी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में हिन्दी जैन साहित्य का निर्माण हुआ है।
द्वितीय परिवर्त में हिन्दी जैन साहित्य के आदिकाल की चर्चा की गई है । इस संदर्भ में हमने अपभ्रंश भाषा और साहित्य को भी प्रवृत्तियों की दृष्टि से समाहित किया है । यह काल दो भागों में विभक्त किया है - साहित्यिक अपभ्रंश और अपभ्रंश परवर्ती लोक भाषा या प्रारम्भिक हिन्दी रचनाएं । प्रथम वर्ग के स्वयंभूदेव, पुष्पदंत आदि कवि हैं और द्वितीय वर्ग में शालिभद्र सूरि जिन पद्मसूरि आदि विद्वान उल्लेखनीय हैं । भाषागत विशेषताओं का भी संक्षिप्त परिचय किया है।
अपभ्रंश भाषा और साहित्य ने हिन्दी के आदिकाल और मध्यकाल को बहुत प्रभावित किया है । उनकी सहज-सरल भाषा, स्वाभाविक वर्णन और सांस्कृतिक धरातल पर व्याख्यायित दार्शनिक सिद्धांतों ने हिन्दी जैन साहित्य की समग्र कृतियों पर अमिट छाप छोडी है । भाषिक परिवर्तन भी इन ग्रन्थों में सहजता पूर्वक देखा जा सकता है। हिन्दी के विकास की यह आद्य कडी है । इसलिए अपभ्रंश की कतिपय मुख्य विशेषताओं की ओर दृष्टिपात करना आवश्यक हो जाता है । यहीं हमने हिन्दी जैन गीति काव्य परंपरा पर भी विचार किया है।
तृतीय परिवर्त में मध्यकालीन हिन्दी काव्य की प्रवृत्तियों को रेखांकित किया गया है । इतिहासकारों ने हिन्दी साहित्य के मध्यकाल को पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल) और उत्तरमध्यकाल (रीतिकाल) के