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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ सतगुरु सीख तान घर पद की, गावत होरा होरी । पूरव बंध अबीर उड़ावत, दान गुलाल भर झोरी ।।४।। भूधर आज बड़े भागिन, सुमति सुहागिन मोरी । सौ ही नारि सुलछिनी जन में, जासों पति ने रनि जोरी ।।५।।१४३३
एक अन्य कृति में भूधरदास अभिव्यक्त करते हैं, कि उसका चिदानन्द जो अभी तक संसार में भटक रहा था, घर वापिस आ गया है। यहां भूधर स्वयं को प्रिया मानकर और चिदानन्द को प्रीतम मानकर उसके साथ होली खेलने का निश्चय करते हैं - "होरी खेलूंगी घर आये चिदानन्द''। क्योंकि मिथ्यात्व की शिशिर समाप्त हो गई, काललब्धि का पसन्त आया, बहुम समय से जिस अवसर की प्रतीक्षा थी, सौभाग्य से वह समय आ गया, प्रिय के विरह का अन्त हो गया अब उसके साथ फाग खेलना है। कवि ने यहां श्रद्धा को गगरी बनाया उसमें रुचि का केशर घोला, आनन्द का जल डाला और फिर उमंग भी प्रिय पर पिचकारी छोड़ी कवि अत्यन्त प्रसन्न है उसकी कुमति रूप सौत का वियोग हो गया। वह चाहता है कि इसी प्रकार सुमति बनी रहे - 'होरी खेलूंगी घर आए चिदानन्द । गिरा मिथ्यात गई अब, आईं काल की लब्धि वसंत ।।होरी।। पीय संग खेलनि कों, हय सइये तरसी काल अनन्त ।। भाग जग्यो अब माग रचनौ, आयो विरह को अंत ।। सरधा गागरि में रुचि रूपी केसर घोरी तुरन्त ।। आनन्द नीर उमंग पिचकारी, छोडूंगी नीकी भंत ।। आज वियोग कुमति सोननिकों, मेरे हरष अनन्त ।। भूधर धनि एही दिन दुर्लभ सुमति राखी विहसंत ।।