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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
वसन्त' में होली खेलने का आग्रह करते हैं। प्रेम के पानी में करुणा की केसर घोलकर ज्ञान-ध्यान की पिचकारी से होली खेलते हैं। उस समय गुरु के वचन ही मृदंग है, निश्चय व्यवहार नय ही ताल हैं, संयम ही इत्र है, विमल व्रत ही चौला है, भाव ही गुलाल है जिसे अपनी झोली में भर लेते हैं, धरम ही मिठाई है, तप ही मेवा है, समरस से आनन्दित होकर दोनों होली खेलते हैं। ऐसे ही चेतन और समता की जोड़ी चिरकाल तक बनी रहे, यह भावना सुमति अपनी सखियों से अभिव्यक्त करती है -
चेतन खैलौ होरी |
समता भूमि छिमा वसन्त में, समता प्रान प्रिया संग गौरी ॥ १ ॥ मन को माट प्रेम को पानी, तामें करुना केसरघोर, ज्ञान ध्यान पिचकारी भरि भरि, आप में छारै होरा होरी ||२॥ गुरु के वचन मृदंग बजत हैं, नय दोनों, डफ ताल टकोरी, संजम अतर विमल व्रत चौवा, भाव गुलाल भरै भर झोरी ।। धरम मिठाई तप बहुमेवा, समरस आनन्द अमल कटोरी, द्यात सुमनि कहें सखियन सों, चिर जीवो यह जुग जुग जोरी ।। # इसी प्रकार कविवर भूधरदास का भी आध्यात्मिक होली का वर्णन देखिये -
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"अहो दोऊ रंग भरे खेलत होरी ।। १ ।।
अलख अमूरति की जोरी ।।
इनमें आतमराम रंगीले, उतते सुबुद्धि किसोरी ।
या के ज्ञान सखा संग सुन्दर, वाके संग समता गौरी ||२||
सुचि मन सलिल दया रस केसरि, उदै कलस में घोरी । सुधि समझ सरल पिचकारी, सखिय प्यारी भरि भरि छोटी ||३||