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________________ रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ 339 'अशुभ पतझर' होने लगी। ‘मलिन-विषयरति दूर हो गई, 'विरतिबेलि' फैलने लगी, 'शशिविवेक निर्मल हो गया, थिरता-अमृत हिलोरे लेने लगा शंकित सुचन्द्रिका फैल गई, ‘नयन-चकोर' प्रमदित हो उठे, सुरति-अग्निज्वाला' भवक उठी समकित सूर्य उदित हो गया, 'हृदय-कमल' विकसित हुआ, 'सुयश-मकरन्द' प्रगट हो गया, दृढ़ कषाय हिमगिरि जल गया, 'निर्जरा-नदी में धारणाधार 'शिवसागर' की ओर बहने लगी वितथ वात प्रभूता मिट गई, यथार्थ कार्य जाग्रत हो गया, वसन्तकाल में जंगल भूमि सुहावनी लगने लगी।३६ । बसन्त ऋतु के आने के बाद अलख अमूर्त आत्मा अध्यात्म की और पूरी तरह से झुक गयी। कवि ने फिर यहां फाग और होलिका का रूपक खड़ा किया और उसके अंग-प्रत्यंगों का सामंजस्य अध्यात्म क्षेत्र से किया। ‘नय चाचरि पंक्ति' मिल गई, ‘ज्ञान ध्यान' उफताल बन गया, 'पिचकारी पद भी साधना हुई, ‘संवरभाव गुलाल' बन गया, 'शुभ-भाव भक्ति तान' में 'राग विराम' अलापने लगा, परम रस में लीन होकर दस प्रकार के दान देने लगा। दया की रस भरी मिठाई, तप का मेवा, शील का शीतल जल, संयम का नागर पान खाकर निर्लज्ज होकर गुप्ति-अंग प्रकट होने लगा, अकथ-कथा प्रारम्भ हो गई, उद्धत गुण रसिया मिलकर अमल विमल रसप्रेम में सुरति की तरंगें हिलोरने लगीं। रहस्यभावना की पराकाष्ठा हो जाने पर परम ज्योति प्रगट हुई। अष्ट कर्म रूप काष्ठ जलकर होलिका की आग बुझ गई, पचासी प्रकृतियों की भस्म को भी नानादि करके धो दिया और स्वयं उज्जवल हो गया। इसके उपरान्त फाग का खेल बन्द हो जाता है, फिर तो मोहपाश के नष्ट होने पर सहज आत्मशक्ति के साथ खेलना प्रारम्भ हो जाता है -
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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