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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
मल पचीस उतारिकै, दिढिपन साजी देइ जी ।। मेरी. ३।। बड़ जानी गणधर तहां भले, परोसण हार हो । शिव सुन्दरी के बयाह कौं, सरस भई ज्योंणार हो ।। ३० ।। मुक्ति रमणि रंग त्यौं रमैं, वसु गुणमंडित सेइ हो । अनन्त चतुष्टय सुख घणां जन्म मरण नहिं होइ हो ।। ३२ ।। ' ४. आध्यात्मिक होली
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जैन साधकों और कवियों ने आध्यात्मिक विवाह की तरह आध्यात्मिक होलियों की भी सर्जना की है। इसको फागु भी कहा गया है। यहां होलियों और फागों में उपयोगी पदार्थों (रंग, पिचकारी, केशर, गुलाल, विवध वाद्य आदि) को प्रतीकात्मक ढंग से अभिव्यंजित कया गया है। इसके पीछे आत्मा-परमात्मा के साक्षात्कार से सम्बद्ध आनन्दोपलब्धि करने का उद्देश्य रहा है । यह होली अथवा फाग आत्मा रूपी नायक शिवसुन्दरी रूपी नायिका के साथ खेलता है । कविवर बनारसीदास ने 'अध्यातम फाग' में अध्यातम बिन क्यां पाइये हो, परम पुरुष कौ रूप। अधट अंग घट मिल रह्यो हो महिमा अगम अनूप की भावना से वसन्त को बुलाकर विविध अंग-प्रत्यंगों के माध्यम से फाग खेली और होलिका का दहन किया 'विषम विरस' दूर होते ही 'सहज वसन्त' का आगमन हुआ। 'सुरुचि-सुगंधिता' प्रकट हुई । 'मन - मधुकर' प्रसन्न हुआ । 'सुमतिकोकिला' का गान प्रारम्भ हुआ । अपूर्व वायु बहने लगी । 'भरम - कुहर' दूर होने लगा । 'जड-जाडा' घटने लगा । माया - रजनी छोटी हो गई। समरस-शशि का उदय हो गया। 'मोह-पंक की स्थिति कम हो गई। संशय-शिशिर समाप्त हो गया। 'शुभ-पल्लवदल' लहलहा उठे।