________________
326
हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना असो सुमरन करिये रे भाई । पवन थंमै मन कितहु न जाई ।। परमेसुर सौं साचौं रहिजै । लोक रंजना भय तजि दीजै ।। यम अरु नियम दोऊविधि घारौं । आसन प्राणायाम सामरौ ।। प्रत्याहार धारना कीजै । ध्यान समाधि महारस वीजै।।१०
अनहद को ध्यान की सर्वोच्च अवस्था कहा जा सकता है जहां साधक अन्तरतम में प्रवेश कर राग-द्वेषादिक विकारी भावों से शून्य हो जाता है वहां शब्द अतीत हो जाते हैं और अन्त में आत्मा का ही भाव शेष रह जाता है। कान भी अपना कार्य करना बंद कर देता है। केवल भ्रमरगुज्जन-सा शब्द कानों में गूंजता रहता है। अनहद सबद सदा सुन रे ।। आप ही जानैं और न जानें, कान बिना सुनिये धुन रे ।। भमर गुंज सम होत निरन्तर, ता अंतर गति चितवन रे ।।११
इसीलिए द्यानतराय जी ने सोहं को तीन लोक का सार कहा है। जिन साधकों के श्वासोच्छवास के साथ सदैव सोहं सोहं की ध्वनि होती रहती है और जो सोहं के अर्थ को समझकर, अजपा की साधना करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं -
सोहं सोहं होत नित, सांसा उसास मझार । ताको अरथ विचारियै, तीन लोक में सार ।। तीन लोक में सार, घर सिव खेत निवासी । अष्ट कर्म सौं रहित, सहित गुण अष्ट विलासी ।। जैसो तैसो आप, थाप निहचै तजि सोहं । अजपा जाप संभार, सार सुख सोहं सोहं ।। १२
आनंदघन का भी यही मत है कि जो साधक आशाओं को मारकर अपने अंतः कारण में अजपा जाप को जगाते हैं वे चेतन मूर्ति