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________________ रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ 325 बनारसीदास ने उसे निर्विकल्प और रूपाधिक का प्रतीक माना। वही आत्मा केवलज्ञानी और परमात्मा कहलाता है । इसी को आतम समाधिक कहा गया है जिसमें राग, द्वेष, मोह विरहित वीतराग अवस्था की कल्पना की गई है । पंडित विवेक लहि एकता की टेक गहि, दुंदज अवस्था की अनेकता हरतु है । मति श्रुति अवधि इत्यादि विकलप मेंटि, निरविकलप ग्यान मन में धरतु है ।। इन्द्रियजनित सुख:दुख सौ विमुख है कै । परम के रूप है करम निर्जरतु है । सहज समाधि साधि त्यागि परकी उपाधि, १०७ आतम अराधि परमातम करतु है ।।' रागद्वेष मोह की दसासों भिन्न रहे यातैं, सर्वथा त्रिकाल कर्म जाल का विधुस है । निरुपाधि आतम समाधि में विराजे तानैं, १०८ कहिए प्रगट पुरन परम हंस है ।। जैन साधकों ने नाम सुमिरन और अजपा जाप को अपनी सहज साधना का विषय बनाया है। साधारण रूप से परमात्मा और तीर्थंकरों का नाम लेना सुमिरन है तथा माला लेकर उनके नाम का जप करना भी सुमिरन है । डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थवाल ने सुमिरन के जो तीन भेद माने हैं उन्हें जैन साधकों ने अपनी साधना में अपनाया है। उन्होंने बाह्यसाधन का खंडनकर अन्तःसाधना पर बल दिया है। व्यवहार नय की दृष्टि ने जाप करना अनुचित नहीं है पर निश्चय नय की दृष्टि से उसे बाह्य क्रिया माना है। तभी तो द्यानतराय जी ऐसे सुमिरन को महत्त्व देते हैं जिसमें -
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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