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________________ 324 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना प्रत्याहार धारणा धारी, ध्यान समाधि समासी । मुल उत्तर गुण मुद्राधारी, पर्यकासन वासी । द्यानतराय ने उसे गुगे का गुड़ माना। इस रसायन का पान करने के उपरान्त ही आत्मा निरंजन और परमानन्द बनता है। उसे हरि-हर-ब्रह्मा भी कहा जाता है। आत्मा और परमात्मा के एकत्व की प्रतीति को ही दौलतराम, ने "शिवपुर की डगर समरस सौं भरी, सो विषय विरस रुचि चिरविसरी' कहा है। मध्यकाल में जिस सहज-साधना के दर्शन होते हैं उससे हिन्दी जैन कवि भी प्रभावित हुए हैं पर उन्होंने उसका उपयोग आत्मा के सहज स्वाभाविक और परम विशुद्धावस्था को प्राप्त करने के अर्थ में किया हैं। बाह्याचार का विरोध भी इसी सन्दर्भ में किया है।" जैन साधक अपने एंग की सहज साधना दारा ब्रह्य पद प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहे हैं। कभी कभी योग की चर्चा उन्होंने अवश्य की पर हठयोग की नहीं। ब्रह्मानुभूति और तज्जन्य आनंद को प्राप्ति का उद्घाटन करने में जैनसाधकों की उक्तियां न अधिक जटिल और रहस्यमय बनी और न ही उनके काव्य में अधिक अस्पष्टता आ पाई। जैन काव्य में सहज शब्द मुख्य रूप से तीन रूपों में प्रयुक्त हुआ है - १. सहज-समाधि के रूप में २. सहज-सुख के रूप में और ३. परमतत्त्व के रूप में। पीताम्बर ने सहज समाधि को अगम्य और अकथ्य कहा है। यह समाधि सरल नहीं है। वह तो नेत्र और वाणी से भी अगम्य है जिसे साधक हीजान पाते हैं - "नैनन ते अगम अगम याही बैनन तें, उलट पुलट बहै कालकूटह कह री । मूल बिन पाए मूढ़ कैसे जोग साधिक आवें, सहज समाधि की अगम गति गहरी ।।३४।।१०६
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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