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________________ 323 रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ यशोविजय ने भी उनका साथ दिया। बनारसीदास को वह कामधेनु चित्रावेलि और पंचामृत भोजन जैसा लगा।" उन्होंने ऐसी ही आत्मा को समरसी कहा है जो नय-पक्षों को छोड़कर समतारस ग्रहण करके आत्म स्वरूप की एकता को नहीं छोडते और अनुभव के अभ्यास से पूर्ण आनंद में लीन हो जाते हैं। ये समरसी सांसारिक पदार्थो की चाह से मुक्त रहते हैं - 'जे समरसी सदैव तिनकौं कछु न चाहिए। ऐसा समरसी ब्रह्म ही परम महारस का स्वाद चख पाता है। उसमें ब्रह्म, जाति, वर्ण, लिंग, रूप आदि का भेद अब नहीं रहता। भूधरदासजी की सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद कैसी आत्मानुभूति हुई और कैसा समरस रूपी जल झरने लगा, यह उल्लेखनीय है - अब मेरे समकित सावन आयो ।। बीति कुरीति मिथ्यामति ग्रीषम, पावस सहज सुहायो ।। अनुभव दामिनि दमकन लागी, सुरति घटा धन छायो ।। बौलैं विमल विवेक पपीहा, सुमति सुहागिन भायो ।। भूल धूलकहि मूल न सूझत, समरस जल झर लायो । भूधर को निकसै अब बाहिर, निज निरचू घर पायौ ।।" आनंदघन पर हठयोग की जिस साधना का किंचित् प्रभाव दिखाई देता है वह उत्तरकालीन अन्य जैनाचार्यो में नहीं मिलता - आतम अनुभव-रसिक कौ, अजब सुन्यौ बिरतंत । निर्वेदी वेदन करै वेदन करै अनन्त ।। माहारो बालुडो सन्यासी, देह देवल मठवासी । इड़ा-पिंगला मारग तजि जोगी, सुषमना घर बासी ।। ब्रम्हरंध्र मधि सांसन पूरी, बाऊ अनहद नाद बजासी । यम नीयम आसन जयकारी, प्राणयाम अभ्यासी ।।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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