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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना योग का तात्पर्य है यम-नियम का पालन करना। यम का अर्थ है इन्द्रियों का निग्रह और नियम का अर्थ है महाव्रतों का पालन। पंचेन्द्रियों के निग्रह के साथ ही अन्तर विजय' का विशेष महत्त्व है। उसे ही सत्य ब्रह्म दर्शन निरवाची।" इसीसे योगी के मन की परख की जाती है। ऐसा ही योगी धर्मध्यान और शुक्लध्यान को पाता है। दौलतराम ने एसे ही योगी के लिए कहा है - 'ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै, सोफेर न भव में आवै।"
बनारसीदास का चिन्तामणि योगी आत्मा सत्य रूप है जो त्रिलोक का शोक हरण करने वाला है और सूर्य के समान उद्योतकरी है। कवि द्यानतराय को उज्जवल दर्पण के समान निरंजन आत्मा का उद्योत दिखाई देता है। वही निर्विकल्प शुद्धात्मा चिदानन्द रूप परमात्मा है जो सहज साधना के द्वारा प्राप्त हुआ है इसीलिए कवि कह उठता है - 'देखो भाई आतमराम विराजे। साधक अवस्था के प्राप्त करने के बाद साधक के मन में दृढ़ता आ जाती है और वह कह उठता है - 'अब हम अमर भये न मरेंगे।
शुद्धात्मावस्था की प्राप्ति में समरसता और तज्जन्य अनुभूति का आनंद जैनेतर कवियों की तरह जैन कवियों ने भी लिया है। उसकी प्राप्ति में सर्वप्रथम द्विविधा का अन्त होना चाहिए जिसे बनारसीदास और भैया भगवतीदास ने दूर करने की बात कही है । आनन्दतिलक की आत्मा समरस में रंग गई -
समरस भावे रंगिया अप्पा देखई सोई, अप्पउ जाणइ परणई आणंद करई णिरालंव होई ।