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________________ रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ 327 निरंजन का साक्षात्कार करते हैं। इसीलिए संत आनंदघन भी सोहं को संसार का सार मानते हैं - चेतन ऐसा ज्ञान विचारो। सोहं सोहं सोहं सोहं सोहं अणु नबी या सारो ।।" इस अजपा की अनहद ध्वनि उत्पन्न होने पर आनंद के मेघ की झड़ी लग जाती है और जीवात्मा सौभाग्यवती नारी के सदृश्य भावविभोर हो उठती है - “उपजी धुनि अजपा की अनहद, जीत नगारेवारी । झड़ी सदा आनंदघन बरखत, बन मोर एकनतारी ।।१५ उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि सहज योग साधनाजन्य रहस्यभावना से साधक आध्यात्मिक क्षेत्र को अधिकाधिक विशुद्ध करता है तथा ब्रह्म (परमात्मा) और आत्मा के सम्मिलन अथवा एकात्मकता की अनुभूति तथा तज्जन्य अनिर्वचनीय परमसुख का अनुभव करता है। इन्हीं साधनात्मक अभिव्यक्तियों के चित्रण में वह जब कभी अपनी साधना के सिद्धान्तों अथवा पारिभाषिक शब्दों का भी प्रयोग करता है। इस शैली को डॉ. त्रिगुणयत ने शब्द मूलक रहस्यवाद और अध्यात्म मूलक रहस्यवाद कहा है। इस तरह मध्यकालीन जैन साधकों की रहस्यसाधना अध्यात्ममूलक साधनात्मक रहस्यभावना की सृष्टि करती है । ३.भावनात्मक रहस्य भावना ___ साधक की आत्मा के ऊपर से जब अष्ट कर्मो का आवरण हट जाता है, और संसार के मायाजल से उसकी आत्मा मुक्त होकर विशुद्धावस्था को प्राप्त कर लेती है तो उसकी भाव दशा भंग हो जाती
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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