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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ जगजीवन के पद भी बड़े हृदयहारी हैं। कवि अपने आराध्य से जन्म-मरण का चक्कर दूर करने का निवेदन करता है और दीनबन्धु' जैसे विरद को निर्वाह करने की प्रार्थना करता है। बुधजन भी प्रभु की महिमा को अच्छी तरह जानते हैं। वे उनके दर्शन मात्र से ही अपने राग-द्वेष को भूल जाते हैं -
प्रभु तेरी महिमा वरणी न जाई ।। इन्द्रादिक सब तुम गुण गावत, में कछु पार न पाई ।।१।। षट् द्रव्य में गुण व्यापत जैते, एक समय में लखाई । ताकी कथनी विधि निषेधकर, द्वादस अंग सवाई । क्षायिक समकित तुम ढिग पावत और ठौर नहिं पाई। जिन पाई तिन भव तिथिं गाही, ज्ञान की रीति बढ़ाई ।।३।। मो स अल्प बुधि तुम उपावत, श्रावक पदवी पाई। तुम ही तैं अभिराम लखू निज राग दोष विसराई ।।४।।
भक्त कवि आराध्य से अपने आपको अत्यन्त हीन समझता है और लघुता व्यक्त करते हुए दास्य भाव को प्रकट करता है। भ. कुमुदचन्द के भक्तिराग ने उन्हें अनाथ बना दिया और फलतः स्वयं को भगवान के चरण-शरण में छोड़ दिया। नाथ अनाथनि कू कछु दीजे ।। विरद संभारी धारी हठ मन ते, काहे जग जस लीजे ।।१।। तुम्ही निवाज कियो हूं मानष गुण अवगुण न गणीजे ।। व्याल वाल प्रतिपल सविषतरु, सौं नहीं आप हणीजे ।।२।। में तो सोई जो ता दीन हूतो जा दिन को न छूईजे । जो तुम जानत और भयो है बाधि बाजार बेचीजे ।।३।। मेरे तो जीवन धन सब तुमहि, नाथ तिहारे जीजे । कहत कुमुदचन्द चरण शरण मोहि, जे भावे सो कीजे ।।४।२