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________________ 314 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना कविवर बनारसीदास ने आराध्य के प्रति लघुता व्यक्त करते हुए उसके स्वरूप को अगम और अथाह माना है उसके स्वरूप का वर्णन करना उसी प्रकार कठिन है जिस प्रकार उलूकपोत रवि किरण के उद्योत का वर्णन नहीं कर सकता और बालक अपनी बाहों से सागर पार नहीं कर सकता। प्रभुस्वरूप अति अगम आह । क्यों हमसे इह होय निवाह । ज्यौं जिन अंध उलूको पोत । कहि न सकै रवि किरन उदोत ।।४।। तुम असंख्य निर्मलगुणखानि । मैं मतिहीन कहो निजवानि । ज्यौं बालक निजबांह पसार । सागर परिमित कहै विचार ।।६।।३ जगतराम प्रभु का अनुग्रह पाने के लिए हाथ जोड़कर बैठे हैं और अवगुणों को अनदेखा करने की प्रार्थना कर रहे हैं। कवि का यह 'चेरा' का स्वरूप दृष्टव्य हैं - तुम साहिब में चेरा, मेरा प्रभु जी हो ।। चूक चाकरी मो चेरा की, साहिब सी जिन मेरा ।।१।। टहल यथाविधि बन नहीं आवे, करम रहे कर बेरा । मेरो अवगुण इतनो ही लीजे, निशदिन सुमरन तेरा ।।२।। करो अनुग्रह अब मुझ ऊपर मेरो अब उरझेरा । 'जगतराम' कह जोड़ वीनवै राखौ चरणन नेरा ।।३।।" वखतराम साह भी इसी तरह -- “दीनानाथ दया मो पे कीजै' कहकर अपने आपको अधम और पालक बताते हैं। बुधजन भी चेरामनकर अष्टकर्मो को नष्ट करना चाहते हैं -५६ साधक भक्त कवि की समता और एकता की प्रतीति के सन्दर्भ में मैं पहले विस्तार से लिख चुकी हूं। 'समता भाव भये हैं मेरे आन भाव सब त्यागो जी' जैसे भाव उसके मन में उदित होते हैं और वह
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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