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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने स्तुति अथवा वन्दनापरक सैकड़ों पद और गीत लिखे हैं। उनमें भक्त कवियों ने विविध प्रकार से अपने आराध्य से याचनायें की हैं। भट्टारक कुमुदचन्द्र पार्श्व प्रभु की स्तुति करके ही अपने जन्म सफलता मानते हैं। उसी से उनके तन-मन की आधि-व्याधि भी दूर हो जाती है - 'जनम सुलभ भयौ भयौ सुकाज रे। तन की तपत टरी सब मेरी, देखत लोडण पास आज रे'। लावण्य समय ने भगवान ऋषभदेव की वन्दना करते हुए उन्हें भवतारक और सुखकारक कहा है। श्री क्षान्तिरंग गणि को पूर्ण विश्वास है कि पार्श्व जिनेन्द्र की वन्दना करने से अज्ञान ही नष्ट नहीं होता वरन् मनवांछित फल की भी प्राप्ति होती है -
पास जिणंद खइराबाद मंडण, हरष धरी नितु नमस्य हो ।। रोर तिमिर सब हेलेहिं हरस्यूं, मनवांछित फलवरस्यं ।।
कुशललाभ कवि सरस्वती की वन्दना करते हुए उसे सुराणी, स्वामिनी और वचन विलासणी मानते हैं। वह समस्त संसार में व्याप्त एक ज्योति है।" रामचन्द्र तीर्थंकर वर्धमान को प्रणाम करते हैं और लोकालोक.प्रकाशक उनके स्तवन से मोहतम को दूर करते हैं - 'प्रणामो परम पुनीत नर, वरधमान जिनदेव। कविवर बनारसीदास ने तीर्थंकर पार्श्वनाथ की अनेक प्रकार से स्तुति की है। जिसमें भाव और भाषा का सुन्दर समन्वय हुआ है - करम भरम जग तिमिर हरनखग, हरन लखन खग सिवमगदरसी । निरखत नयन भविकजल वरसत, हरखत अमित भविक जन सरसी।। मदन कदन-जिन परम धरम हित, सुमिरत भगति भगति सब डरसी । सजल-जलद तन मुकुट सपत फन, कमठ-दलन जिन नमत बनरसी ।१।"
कविराजमल की सरस्वतीवन्दना देखिए -