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________________ 310 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना जगतराम प्रभु के समक्ष अपनी भूल को स्वीकार करते हुए कहते हैं जिन विषय कषाय रूपी नागों ने उसे डसा है उससे बचने के लिए मात्र आपका भक्ति गरुड ही सहायक सिद्ध हो सकता है।" खुशालचन्द काला भगवान् की चरण सेवा का आश्रय लेकर संसारसागर से पार होना चाहते हैं 'सुरनर सब सेवा-करें, जी चरण कमल की वोर, भमर समान लग्यो रहे जी, निसि-वासर भोर।।" कविवर दौलतराम अपने आराध्य के सिवा और किसी की चरण सेवा में नहीं जाना चाहते है - जाउं, कहां शरन तिहारौ ।। चूक अनादि तनी या हमारी, माफ करौं करुणा गुन धारै ।। डूबत हों भवसागर में अब, तुम बिन को मोहिं पार निकारै ।। तुन सम देव अबर नहि कोई, तातें हम यह हाथ पसारे ।। मौसम अधम अनेक ऊबारे, बरनत हैं गुरु शास्त्र अपारे ।। दौलत को भवपार करो अब, आयो है शरनागत थारे ।" कवि बुधजन को भी जिन शरण में जाने के बाद मरण का कोई भय नहीं दिखाई देता। वह भ्रमविनाशक, तत्त्व प्रकाशक और भवदधितारक है - हम शरन गयौ जिन चरन को । अब औरन की मान न मेरे, डर हुरह्यौ नहिं मरनको ।।१।। भरम विनाशन तत्त्व प्रकाशन, भवदधि तारन तरन को । सुरपति नरपति ध्यान धरत वर, करि निश्चय दुःख हरन को ।।२।। या प्रसाद ज्ञायक निज जान्यौं तन जड़ परन को। निश्चय सिधसौं पै कषायतें, पात्र भयो दुख भरन को ।।३।। प्रभु बिन और नहीं या जग में, मेरे हित के करन को । बुधजन की अरदास यही है, हर संकट भव फिरन को ।।४।।"
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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