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________________ रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ 309 उपाध्याय यशोविजय (सं. १६८०-१७४४) गंभीर शास्त्राभ्यासी कवि थे। उनके ग्रन्थों में कवित्वशक्ति, वचनचातुरि, पदलालित्य, अर्थ गौरव, रसपोषण, अलंकार निरूपण, परपक्ष खण्डन, स्वपक्षमण्डल और जिनभक्ति माहात्म्य का बडा सुन्दर वर्णन हुआ है। जसविलास में उनका जिनेन्द्र स्तवन देखिए जिसमें वे प्रभु के ध्यान में मग्न हो जाते हैं - हम मगन भये प्रभु ध्यान में, बिखर गई दुविधा तन मन की, अचिरा सुत गुन गान में। हरिहर ब्रह्म पुरंदर की रिधि आवत नहि कोउ मान में । चिदानन्द की मौज मची है, समता रस के पान में । इतने दिन तू नाहि पिछान्यो, जन्म गंवायो अजान में । अब तो अधिकारी हैं बैई, प्रभुगुन अखय खजान में । गई दीनता सभी हमारी, प्रभु तुझ समकित दान में । प्रभु गुन अनुभव के रस आगे, आवत नहिं कोउ ध्यान में । (डा० प्रेमसागरजैन - हिन्दी जैन भक्तिकाव्य पृ० २०२) भगवतीदास पार्श्वजिनेन्द्र की भक्ति में अगाध निष्ठा व्यक्त करते हुए संसारी जीव को कहते हैं कि उसे इधर-उधर भटकने की आवश्यकता नहीं है। उसकी रात-दिन की चिन्ता पार्श्वनाथ की सेवा से ही नष्ट हो जायेगी काहे को देशदिशांतर धावत, काहे रिझावत इन्द्र नरिंद । काहे को देवि औदेव मनावत, काहे कोशीस नसावतचंद ।। काहे को सूरज सीं करजोरत, काहे निहोरत मूढ़ मुनिंद । काहेको सोच करे दिनरैन तू, सेवत क्यों नहिपार्श्वजिनंद ।।८
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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