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________________ 308 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना की सेवा कर इन्द्रादिक देव भी मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं। कवि अठारह दोषों से मुक्त प्रभु की चरण सेवा करने की आकांक्षा व्यक्त करता है - जगत में सौ देवन कौ देव । जासु चरन परसै इन्द्रादिक होय मुकत स्वमेव । नहीं तन रोग न श्रम नहि चिन्ता, दोष अठारह मेव । मिटे सहज जाके ता प्रभु की करत बनारसि सेव ।" कुमुदचन्द्र भी प्रभु के चरण-सेवा की प्रार्थना करते हैं - - ‘प्रभु पाय लागौं करूं, सेव थारी, तू सुन ले अरज श्री जिनराज हमारी।'५५ भैया भगवतीदास प्रभु के चरणों की शरण में जाकर प्रबल कामदेव की निर्दयता का शिकार होने से बचना चाहते हैं। आनंदघन संसार के सभी कार्य करते हुए भी प्रभु के चरणों में उसी प्रकार मन लगाना चाहते हैं जिस प्रकार गायों का मन सब जगह घूमते हुए भी उनके बछड़ों में लगा रहता है - ऐसे जिन चरण चित पद लाउं रे मना, ऐसे अरिहंत के गुणगाऊं रे मना । उदर भरण के कारणे रे गउवां बन में जाय, चारौ चहुं दिसि फिरै, बाकी सुरत बछरू आ मांय ।। खंभात निवासी कवि शंभुदास (१७वीं शती) की अनेक रचनाएं उपलब्ध हैं। उनमें एक सरस्वती वन्दना भी है जिसका एक पद्य निम्नलिखित है - कासमीर मुख मंडंणी, भगवती ब्रह्म सुताय, तुं त्रिपुरा तु भारती, तुं कविजन नीमाय । तुं सरसति तुं शारदा, तुं ब्रम्हाणी सार, विदुषी माता तुं कही तुझ गुण नो नहिपार ।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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