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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना कविवर बनारसीदास ने भक्ति के माहात्म्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि हमारे हृदय में भगवान की ऐसी भक्ति है जो कभी तो सुबद्धि रूप होकर कुबुद्धि को मिटाती है, कभी निर्मल ज्योति होकर हृदय में प्रकाश डालती है, कभी दयालु होकर चित्त को दयालु बनाती है, कभी अनुभव की पिपासा रूप होकर नेत्रों को स्थिर करती है, कभी आरती रूप होकर प्रभु के सन्मुख आती है, कभी सुन्दर वचनों में स्तोत्र बोलती है। जब जैसी अवस्था होती है तब तैसी क्रिया करती है - कबहूं सुमति है कुमतिकी निवास करै,
___कबहू विमल जोति अन्तर जगति है। कबहूं दया है चित करत दयाल रूप,
कबहूं सुलालसा है लोचन लगति है ।। कबहूं आरती के प्रभु सनमुख आवै,
कबहूं सुभारती व्है बाहरि बगति है । धरै दसा जेसी तब करै रीति तेसी ऐसी,
__ हिरदै हमारै भगवंत की भगति है।" जैन साधना के क्षेत्र में दस प्रकार की भक्तियाँ प्रसिद्ध हैं - सिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति, चरित्र भक्ति, योगि भक्ति, आचार्य भक्ति, पंचमहागुरु भक्ति, चैत्य भक्ति, वीर भक्ति, चतुर्विशति तीर्थंकर भक्ति और समाधि भक्ति। इनके अतिरिक्त निर्वाण भक्ति, नंदीश्वर भक्ति और शांति भक्ति को भी इसमें सम्मिलित किया गया है। भक्ति के दो रूप हैं - निश्चय नय से की गई भक्ति और व्यवहार नय से की गई भक्ति। निश्चय नय से की गई भक्ति का सम्बन्ध वीतराग सम्यग्दृष्टियों के शुद्ध आत्म तत्त्व की भावना से है और व्यवहार नय से की गई भक्ति का सम्बन्ध सराग सम्यग्दृष्टियों के पंच परमेष्ठियों की