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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ
303 आराधना से है। व्यवहार में उपास्य को कर्म, दुःखमोचक आदि बनाकर भक्ति की जाती है पर वह अन्तरंग भावों के सापेक्ष होने पर ही सार्थक मानी गई है अन्यथा तहीं। नवधा भक्ति आदि के माध्यम से साधक निश्चय भक्ति की ओर अग्रसर होता है। इसी को प्रपत्ति मार्ग कहा जाता है।
उपर्युक्त प्रपत्ति मार्ग के प्रमुख तत्त्वों के आधार पर हम यहाँ मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों द्वारा अभिव्यक्त रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का संक्षिप्त अवलोकन करेंगे। बनारसीदास ने नवधा भक्ति में सर्वप्रथम श्रवण को स्थान दिया है। श्रवण का तात्पर्य है अपने आराध्य देव के उपदेशों का सम्यक् श्रवण करना और तदनुकूल सम्यक्ज्ञान पूर्वक आचरण करना। भक्त के मन में आराध्य के प्रति श्रद्धा और प्रेम भावना का अतिरेक होता है। अतः मात्र उसी के उपदेश आदि को सुनकर अपने जीवन को कृतार्थ माना है। वह अपने अंगों की सार्थकता को तभी स्वीकार करता हैं जबकि वे आराध्य की ओर झुके रहें। मनराम ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य को इस प्रकार अभिव्यक्त किया है - नैन सफल निरषै जु निरंजन, सीस सफल नमि ईसर झावहि । श्रवन सफल विहि सुनत सिद्धांतहि मुषज सफल जपिय जिन नांवहि । हिर्दो सफल जिहि धर्मवसे ध्रुव, करज सुफल पुन्यहि प्रभु पावहि । चरन सफल मनराम वहै गनि, जे परमारथ के पथ धावहि ।।
इसी को द्यानतराय ने रे जिय जनम लहो लेह' कहकर चरण, जिह्वा, श्रोत्र आदि की सार्थकता तभी मानी है जब वे सद्गुरु की विविध उपासना में जुटे रहें -