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________________ 301 रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ मधुर भाव और प्रपत्ति की सुन्दर झलक इन पंक्तियों में द्रष्टव्य है: मैं आई प्रभु सरन तुम्हारी, लागत नाहिं धको । भुजन उठाय कहूँ औरन सुं करहुं ज कर ही सको । वारे नाह संग मेरो, यूं ही जीवन जाय ए दिन हसन खेलन के सजनी, रोते रैन विताय अब मेरे पति गति देव निरंजन भटकू कहाँ-कहाँ सिर पटकू, कहाँ करुं जनरंजन। ये सभी उदाहरण निर्गुण भक्तों की अध्यात्मवादी अवधारणा के पर्याप्त निकट दिखाई देते हैं। नाथ सिद्धों की तरह वे चेतना को उद्बोधित करते हुए कहते हैं - क्या सोवे उठ जाग बाउ रे । अंजलि जल ज्युं आयु घटत है, देत पहोरिया धरिय घाउ रे । इन्द्र चन्द्र नागेन्द्र मुनींद्र चल, कोण राजापतिसाह राउ रे । भमत भमत जलनिधि पायके, भगवंत भजन बिन भाउनाउ रे । कहा विलंब करे अब बाउ रे, तरी भव जलनिधि पार पाउ रे । आनन्दघन चेतनमय मूरति, शुद्ध निरंजन देव ध्याउरे । इसी तरह खरतरगच्छीय उदयराज (सं. १६३१-१६७६) के वैद्यविरहिणी प्रबन्ध में विरहज्वर से पीडित नारी व्रजराज रूपी वैद्यराज के पास जाती है और अपना दुःख निवारण कराती है। यहां कृष्ण भक्ति काव्य का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पडता है - अपने अपने कंत सूं रसवास रहिया जोइ, उदैराज उन नारि कू, जमे दुहाग न होइ । जां लगि गिरि सायल अचल, जाम अचल धूराज, तां रंग राता रहै, अचल जोड़ि व्रजराज ।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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