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________________ 300 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना करना। अनुराग के साथ ही विनय, सेवा, उपासना, स्तुति, शरणगमन आदि क्रियायें विकसित हो जाती हैं। इस सन्दर्भ में पर्युपासना शब्द का भी प्रयोग हुआ है। उपासगदसाओ में पर्युपासना का क्रम इस प्रकार मिलता है - उपगमन, अभिगमन, आदक्षिणा, प्रदक्षिणा, वंदण, नमस्सण एवं पर्युपासना। स्तवन, नामस्मरण, पूजा, सामायिक आदि के माध्यम से भी साधक अपनी भक्ति प्रदर्शित करता हुआ साधना को विशुद्धतर बनाने में जुटा रहता है। हिन्दी जैन कवियों ने इन सभी प्रकारों को अपनाकर भक्ति का माहात्म्य प्रस्थापित किया है। महात्मा आनन्दघन (सं. १६७२-१७४०) उदार विचारों के जैन सन्त थे। वे साम्प्रदायिक संकुचित भाव से परे थे। उनके भाव कबीर, दादू, रज्जव आदिसन्तों से मिलते-जुलते हैं। उनकी आनन्दघन बहत्तरी इन्हीं आध्यात्मिक भावों से ओतप्रोत रचना है जिसमें शान्तरस का मर्मस्पर्शी अभिव्यंजन हुआ है। इसमें भक्ति, वैराग्य से प्रेरित आध्यात्मिक रूपक अन्तर्योति का आविर्भाव और प्रेरणामय उल्लास का भाव व्यक्त हुआ है। भक्ति के विषय में उनका यह मार्मिक कथन उल्लेखनीय है कि कुछ काम करते हुए भी साधक का मन भगवान के चरणों में लगा रहे। गाय कहीं भी चरती है पर उसका ध्यान अपने बछडे पर लगा रहता है। अखण्ड सत्य में अडिग विश्वास ही भक्ति का लक्षण है चाहे फिर उसे राम, रहीम, महादेव या महावीर कुछ भी कहें, आगे फिर उनके काव्य में मधुर भाव और प्रपत्ति की सुन्दर झलक निम्न पद्यों में दृष्टव्य है - आम कहो, रहमान कहो कोउ कान्ह कहो महादेव री, पारसनाथ कहो, कोई ब्रह्म सकल ब्रह्म स्वयमेव री । भाजनभेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री, तैसे खण्ड कल्पना रोपित आप-अखण्ड सरूप री ।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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