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________________ हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना उपादेय को सही ढंग से समझाता है। उसका वैराग्य पक जाता है, राग, द्वेष, मोह से उसकी निवृत्ति हो जाती है, पूर्वोपार्जित कर्म निजीर्ण हो जाते हैं और वर्तमान तथा भविष्य में उनका बन्ध नहीं होता । ज्ञान और वैराग्य, दोनों एक साथ मिलकर ही मोक्ष के कारण होते हैं। जैसे किसी जंगल में दावानल लगने पर लंगड़ा मनुष्य अंधे के कंधे पर चढ़े और उसे रास्ता बताता जाये तो वे दोनों परस्पर के सहयोग से दावानल से बच जाते हैं। उसी प्रकार ज्ञान और चारित्र में एकता मुक्ति प्राप्त के लिए आवश्यक है। ज्ञान आत्मा का स्वरूप जानता है और चारित्र आत्मा में स्थिर होता है। रूपचन्द ने दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों का सामुदायिक रूप ही साध्य की प्राप्ति में कारण बताया है। दर्शन से वस्तु के स्वरूप को देखा जाता है, ज्ञान से उसे जाना जाता है और चारित्र से उस पर स्थिरीकरण होता है। द्रव्यसंग्रह में भी यही बात कही गयी है। *" १४७ १४८ 294 १४९ मुक्ति का मार्ग सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की समन्वित अवस्था है। इस अवस्था की प्राप्ति भेदविज्ञान के द्वारा होती है । अन्तरंग और बहिरंग सभी प्रकार के परिग्रहों से दूर रहकर परिषह सहते हुए तप करने से परमपद प्राप्त होता है।" साधक आत्मानुभव करने पर कहने लगता है - हम लागे आतमराम सो। उसके आत्मा में समता सुख प्रगट हो जाता है, दुविधाभाव नष्ट हो जाता और भेदविज्ञान के द्वारा स्व-पर का विवेक जाग्रत हो जाता है। इसलिए द्यानतराय कहने लगते ‘आतम अनुभव व करना रे भाई' । भेदविज्ञान जब तक उत्पन्न नहीं होता तक तक जन्म-मरण का दुःख सहना पड़ता है। सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन, व्रत तप, संयम आदि आत्मज्ञान के विना निरर्थक है। इसलिए कवि रागादिक परिणामों को त्याग कर समता से लौ लगाने का संकल्प करता है, क्षपक श्रेणी
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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