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________________ रहस्यभावना के साधक तत्त्व १४४ का विनाशक कहा है। छत्रपति की दृष्टि में जिस प्रकार वृक्ष की जड़ और महल की नींच होती है वैसे ही सम्यक्त्व धर्म का आदि और मूल रूप है। उसके बिना प्रशमभाव, श्रुतज्ञान, व्रत, तप, व्यवहार आदि सब कुछ भले ही होता रहे पर उनका सम्बन्ध आत्मा से न हो, तो वे व्यर्थ रहती हैं, इस प्रकार सम्यक्त्व के बिना भी सभी क्रियायें सारहीन होती हैं। *५ १४५ 293 भूधरदास का कवि सम्यक्त्व की प्राप्ति से वैसा ही प्रफुल्लित हो जाता है जैसे कोई रसिक सावन के आने से रसमग्न हो उठता है । मिथ्यात्वरूपी ग्रीष्म व्यतीत हो गया, पावस बड़ा सुहावना लगने लगा। आत्मानुभव की दामिनि दमकने लगी, सुरति की घनी घटायें छाने लगीं। विमल विवेक रूप पपीहा बोलने लगे, सुमति रूप सुहागिन मन को रमने लगी, साधक भाव अंकुरित हो गये, हर्षवेग आ गया, समरस का जल झरने लगा। कवि अपने घर में आ गये, फिर बाहिर जाने की बात उनके मन से चली गयी - 'अब मेरे समकित सावन आयो ' ।। बीति कुरीति मिथ्यामति ग्रीषम पावस सहज सुहायो ।। अब ।।१।। अनुभव दामिनि दमकन लागी, सुरति घटा धन छायौं । बालै विमल विवेक पपीहा, सुमति सुहागिन पायो | | अब ||२॥ गुरुधुन गरज सुनत सुख उपजै, मोर सुमत विहसायों । साधक भाव अंकूर उठे बहु, जित तित हरण सवायो ।। अब ।।३।। भूल भूलकहि भूल न सूझत, समरस जल झरलायों । भूधर को निकसै अब बाहिर, निज निरचू घर पायो । । अब ||४|| ४६ सम्यग्दर्शन के साथ ज्ञान और चारित्र का भी सम्बन्ध है । शुद्धज्ञान के साथ शुद्ध चरित्र का अंश रहता है। इससे ज्ञानी जीव हेय,
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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