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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना . सम्यग्ज्ञानी जीव, सदैव आत्मचिन्तन में लगा रहता है। उसे दुनियां के अन्य किसी कार्य से कोई प्रयोजन नहीं होता। आनंदघन ने एक अच्छा उदाहरण दिया है जैसे ग्रामवधुएँ पांच-सात सहेलियां मिलकर पानी भरके घर की ओर चलीं। रास्ते में हंसती इठलाती चलती हैं पर उनका ध्यान निरन्तर घड़ों में लगा रहता है। गायें भी उदर पूर्ति के लिए जंगल जाती हैं, घास चरती हैं, चारों दिशाओं में फिरती हैं, पर उनका मन अपने बछड़ों की ओर लगा रहता है। इसी प्रकार सम्यक्त्वी जीव का भी मन अन्य कार्यों की ओर लगा रहता है। इसी प्रकार सम्यक्त्वी का भी मन अन्य कार्यों की ओर झुका रहने पर भी ब्रह्म-साधना की ओर से विमुख नहीं होता।
सात पांच सहेलयाँ रे हिल-मिल पाणीड़े जाय । ताली दिये खल हंस, वाकी सुरत गगरु आमायं। उदर भरण के कारणों रे गउवां बन में जाय । चारों चरें चहुं दिसि फिरें, वाकीसुरत बछरूआ मायं ।। ३
अज्ञात कवि कृत मातृका बावनी में स्पष्ट कहा गया है कि सम्यक्त्व के बिना सभी क्रियायें वैसे ही काफूर हो जाती है जैसे गर्म तवे पर पड़ी जल की बूंदें क्षण भर में छनछना कर लुप्त हो जाती हैं। इसका अन्तिम पद्य देखिये :
एहु विचारु हियइ जो धरइ, सूधउं धम्मु विचारिउ करइ । सुहगुरु तथा चलण सेवंति, ते नर सिद्धि सुक्खु पावंति जइ संसारु तरवेउ करउ, सतगुरु तणा वयण ओसरहु । जइ संसारह करिसउ छेहु, सुद्धं धम्मु विचारिउ लेहु । भैया भगवतीदास ने सम्यक्त्व को सुगति का दाता और दुर्गति