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रहस्यभावना के साधक तत्त्व चढ़कर चरित मोह का नाश करना चाहता है, क्रमशः घातियाअघातिया कर्मो को नष्ट कर अर्हन्त और सिद्ध अवस्था प्राप्त करने की बात करता है। उसकी संकल्प पूर्ति की आतुरता आतम जानो रे भाई' और कभी करकर आतम हित रे प्रानी' कह उठता है। जब भेदविज्ञान हो जाने का उसे विश्वास हो जाता है तो ‘अब हम आतम को पहिचानी', दुहराकर 'मोहि कब ऐसा दिन आय है' कह जाता है। संसार की स्वार्थता देखकर उसे यह भी अनुभव हो जाता है - दुनिया मतलब की गरजी, अब मोहे जान पड़ी।५० ।।
भैया भगवतीदास ने राग द्वेष को जीतना, क्रोध मानादिक माया-लोभ कषाओं को दूर करना, मुक्ति प्राप्ति के लिए आवश्यक बताया है। वे भेदविज्ञान को निजनिधि मानते हैं। उसको पाने वाला ब्रह्मज्ञानी है और वही शिवलोक की निशानी कही गयी है।१५२ विश्वभूषण ने अनेकान्तवाद के जागते ही ममता के भाग जाने की बात कही और उसी को मुक्ति प्राप्ति का मार्ग कहा।५३ वह उस योगी में चित्त लगाना चाहता है जिसके सम्यक्त्व की डोरी से शील के कछोटा को बांध रखा है। ज्ञान रूपी गूदड़ी गले में लपेट ली है। योग रूपी आसन पर बैठा है। वह आदि गुरु का चेला है । मोह के काम फड़वाये हैं। उनमें शुक्ल ध्यान की बनी मुद्रा बहती है । क्षायकरूपी सिंगी उसके पास है जिसमें करुणानुयोग का नाद निकलता है। वह अष्ट कर्मो के उपलों की धुनी रमाता है और की अग्नि जलाता है उपशम के छन्ने से छानकर सम्यक्त्व रूपी जाल से मल-मलकर नहाता है। इस प्रकार वह योग रूपी सिंहासन पर बैठकर मोक्षपुरी जाता है। उसने गुरु की सेवा की है जिससे उसे फिर कलियुग में न आना पड़े।५४