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________________ रहस्यभावना के साधक तत्त्व "देखी मेरी सखिये आज चेतन घर आवै । काल अनादि फिरयो परवश ही अब निज सुधहि चितावै।। 289 ,,१३२ भेदविज्ञान रूपी तरुवर जैसे ही सम्यक्त्वरूपी धरती पर ऊंगता है वैसे ही उसमें सम्यग्दर्शन की मजबूत शाखायें आ जाती हैं, चारित्र का दल लहलहा जाता है, गुण की मंजरी लग जाती है, यश स्वभावतः चारों दिशाओं में फैल जाता है। दया, वत्सलता, सुजनता, आत्मनिन्दा, समता, भक्ति, विराग, धर्मराग, मनप्रभावना, त्याग, धैर्य, हर्ष, प्रवीणता आदि अनेक गुण गुणमंजरी में गुंथे रहते हैं। " कवि भूधरदास को भेदविज्ञान हो जाने पर आश्चर्य होता है कि हर आत्मा में जब अनन्तज्ञानादिक शक्तियां हैं तो संसारी जीव को यह बात समझ में क्यों नहीं आती। इसलिए वे कहते हैं - १३४ पानी विन मीन प्यासी, मोहे रह-रह आवै हांसी रे ।। द्यानतराय आत्मा को सम्बोधते हुए स्वयं आत्मरमण की ओर झुक जाते हैं और उन्हें आत्मविश्वास हो जाता है कि ‘अब हम अमर भये न मरेंगे।' भेदविज्ञान के द्वारा उनका स्वपर विवेक जाग्रत हो जाता है और वे आत्मानुभूतिपूर्वक चिन्तन करते हैं । अब उन्हें चर्मचक्षुओं की भी आवश्यकता नहीं। अब तो मात्र आत्मा की अनन्तशक्ति की ओर उनका ध्यान है। सभी वैवाहिक भाव नष्ट हो चुके हैं और आत्मानुभव करके संसार-दुःख से छूटे जा रहे हैं - हम लागे आतमराम सौं । विनाशीक पुद्गल की छाया, कौन रमै धन-धान सौं । समता सुख घट में परगारयो, कौन काज मै काम सौं । दुविधाभव जलांजलि दीनों, मेल भयौ निज स्वाम सौं ।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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