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________________ 290 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना भेदज्ञान करि निज-पर देख्यौ, कौन विलौकै चाम सौं। उरै-परै की बात न भावै, लौ लागी गुण-ग्राम सौं ।। विकलप भाव रंक सब भाजै, झरि चेतन अभिराम सौं । 'द्यानत' आतम अनुभव करिक, दूटेभव-दुख घाम सौं ।।१३५ कवि छत्रपति ने भी भेदविज्ञान के माहात्म्य का सुन्दर वर्णन किया है।१३६ स्वपर-विवेक रूप यह भेदविज्ञान साधक के मन में संसार और पदार्थ के स्वरूप को स्पष्ट कर देता है और उससे सम्बद्ध रागादिक विकारों को दूर करने में सहायक होता है। उसके मन में रहस्य भावना की प्राप्ति और उसकी साधना के प्रति आत्मविश्वास बढ़ जाता है और फलतः वह रत्नत्रय की प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है। इसमें जीवदया द्वारा ही सर्वार्थसिद्धि की प्राप्ति संभव बताई गई है। आगमगच्छीय साधुमेरु ने अपने पुण्यरास (सं. १५०१) में जीवदया को सब पुण्यों का सार बताया है और सालिग ने बलभद्रबेलि में उसे सम्यक्त्व का कारण बताया है - जीवदयानी हियउ धरउ बुद्धि, जीवदया पालउ मनशुद्धि, जीवदया लगइ निरन्तर वृद्धि, जीवदया पालिइ हुइ सर्वसिद्धि। इम जीव दया प्रतिपालउ, साचउ समकित रयण उजालउ, समकित विण काज न सीझइ, सालिग कहइ सुधउ कीजइ । (जैन गोजर काव्य, भाग १ पृ. १३२, १३४-१३५) ८. रत्नत्रय रत्नत्रय का तात्पर्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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