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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना भेदविज्ञान अपनी ज्ञान शक्ति से द्रव्य कर्म भावकर्म को नष्ट कर मोहान्धकार को दूर कर केवलज्ञान की ज्योति प्राप्ति करता है। कर्म
और नोकर्म से न छिप सकने योग्य अनन्त शक्ति प्रकट होती है जिससे वह सीधा मोक्ष प्राप्त करता है - जैसौ कोऊ मनुष्य अजान महाबलवान,
खोदि मूल वृच्छ को उखारै गहि बाहू सौं। तैसैं मतिमान दर्व कर्म भावकर्म त्यागि,
रहै अतीत मति ग्यान की दशाहू सौं। याही क्रिया अनुसार मिटै मोह अन्धकार,
जगै जोति केवल प्रधान सविताहू सौं। चुकै न सुकतीसों लुकैं न पुद्गल मांहि,
धुकै मोख थलको रुके न फिर काहू सौं।।१२७ भेदविज्ञान को ही आत्मोपलब्धि कहा गया है। इसी से चिदानन्द अपने सहज स्वभाव को प्राप्त कर लेता है। पीताम्बर ने ज्ञानवावनी में इसी तथ्य को काव्यात्मक ढंग से बहुत स्पष्ट किया है। बनारसीदास ने इसी को कामनाशिनी पुण्यपापतापहरनी, रामरमणी, विवेकसिंहचरनी, सहज रूपा, जगमाता रूप सुमतिदेवी कहा है। भैया भगवतीदास ने "जैसो शिवखेत तेसौ देह में विराजमान, ऐसा लखि समुति स्वभाव में पगाते हैं।'' कहकर "ज्ञान बिना बेर-बेर क्रिया करी फेर-फेर, कियो कोऊ कारज न आतम जतन को'' कहा हैं। कवि को चतन जब अनादिकाल से लगे मोहादिक को नष्ट कर अनन्तज्ञान शक्ति को पा जाता है तो कह उठता है -