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रहस्यभावना के साधक तत्त्व
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धोबी के घर जाकर दूसरे के कपड़े पहन लेता है और यदि इस बीच उन कपड़ों का स्वामी आकर कहता है कि ये कपड़े मेरे हैं तो वह मनुष्य अपने वस्त्र का चिन्ह देखकर त्याग बुद्धि करता है, उसी प्रकार यह कर्म संयोगी जीव परिग्रह के ममत्व से विभाव में रहता है अर्थात् शरीरादि को अपना मानता है। परन्तु भेदविज्ञान होने पर जब स्व-पर का विवेक हो जाता है तो वह रागादि भावों से भिन्न अपने स्वस्वभाव को ग्रहण करता है। जिस प्रकार आरा काष्ठ के दो खण्ड कर देता है, अथवा जिस प्रकार राजहंस क्षीर-नारी का पृथक्करण कर देता है उसी प्रकार भेदविज्ञान अपनी भेदन-शक्ति से जीव और पुद्गल को जुदाजुदा करता है। पश्चात् यह भेदविज्ञान उन्नति करते-करते अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञान और परमावधिज्ञान की अवस्था को प्राप्त होता है और इस रीति से वृद्धि करके पूर्ण स्वरूप का प्रकाश अर्थात् केवलज्ञान स्वरूप हो जाता है। जिसमें लोक-अलोक के सम्पूर्ण पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं - जैसें करवत एक काठ बीच खण्ड करे,
जैसे राजहंस निखारै दूध जलकौं। तैसैं भेदग्यान निज भेदक सकतिसेती,
भिन्न-भिन्न करै चिदानन्द पुद्गल कौ।।१२३ शुद्ध, स्वतन्त्र, एकरूप, निराबाध भेदविज्ञान रूप तीक्ष्ण करौंत अन्तःकरण में प्रवेश कर स्वभाव-विभाव और जड़ चेतन को पृथक्-पृथक् कर देता है । वह भेद-विज्ञान जिनके हृदय में उत्पन्न होता हैं उन्हें शरीर आदि पर वस्तु का आश्रय नहीं सुहाता। वे आत्मानुभव करके ही प्रसन्न होते हैं और परमात्मा का स्वरूप पहचानते हैं। इसलिए भेदविज्ञान को संवर, निर्जरा और मोक्ष का कारण माना गया है। २५ भेदविज्ञान के बिना शुभ-अशुभ की सारी क्रियायें भागवद् भक्ति, बाह्यतप आदि सब कुछ निरर्थक है। २६