________________
286
हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना गमायो" कहकर यही भाव व्यक्त करते हैं। ये भाव साधक की आंतरिक पवित्रता से उत्पन्न मार्मिक स्वर है जिनमें परमात्मा के साक्षात्कार की गहन आशा जुड़ी हुई है जिसके बल पर वह आध्यात्मिक प्रगति के सोपान चढ़ता रहता है।
__ इस प्रकार जैनधर्म में अन्तरंग की विशुद्धि पर विशेष जोर दिया गया है। इसलिए बनारसीदास ने ज्ञानी और अज्ञानी की साधना के फल में अन्तर दिखाते हुए स्पष्ट कहा है
जाके चित्त जैसी दशा ताकी तैसी दृष्टि । पंडित भव खंडित करें, मूढ बनावे सृष्टि ।।११७
स्व-पर का विवेक भेदविज्ञान कहलाता है। उसका प्रकाश आदिकाल से लगे हुए जीव के कर्म और मोह के नष्ट हो जाने पर होता है। सम्यग्दृष्टि ही भेदविज्ञानी होता है। उसे भेदविज्ञान सांसारिक पदार्थो से ऐसे पृथक् कर देता है जैसे अग्नि स्वर्ण को किटिका आदि से भिन्न कर देती है। रूपचन्द इसी को सुप्रभात कहते हैं - “प्रभु मोकौं अब सुप्रभात भयो” वह मिथ्याभ्रम, मोहनिद्रा, क्रोधादिक कषाय, कामविकार आदि नष्ट होने पर प्राप्त होता है। यही मोक्ष का कारण
७. भेदविज्ञान
भेदविज्ञान होने पर चेतन को स्वानुभव होने लगता है अन्य पक्ष के स्थान पर अनेकान्त की किरण प्रस्फुटित हो जाती है, आनन्द कन्द अमन्द मूर्ति में मन रमण करने लगता है। इसलिए भेदविज्ञान की 'हिये की आखें' कहा गया है जिसके प्राप्त होने पर अमृतरस बरसने लगता है और परमार्थ स्पष्ट दिखाई देने लगता है। जैसे कोई व्यक्ति