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रहस्यभावना के साधक तत्त्व
285 बिना देहाश्रित क्रियायें करना तथा-निर्वेद हुए बिना तप करना व्यर्थ है इसलिए दौलतराम कहते हैं कि यदि तू शिव पद प्राप्त करना चाहता है तो निज भाव को जानो। १६
यह चित्तविशुद्धि आत्मालोचन गर्भित होती है। आत्मालोचन के बिना साधक आत्मविकास की ओर सफलतापूर्वक पग नहीं बढ़ पाता । आत्मालोचन और आत्मशोधन परस्पर गुथे हुए हैं। जैन कवियों ने इन दोनों क्षेत्रों में सहजता और सरलतापूर्वक आत्म दोषों को प्रगट कर चित्तविशुद्धि की ओर कदम बढ़ाये हैं - रूपचन्द को इस बात का पश्चात्ताप है कि उन्होंने अपना मानुस जन्म व्यर्थ खो दिया 'मानुस जन्म वृथा तै खोयो' (हिन्दी पद संग्रह, पद ४६) । द्यानतराय (द्यानत विलास, पद २१) । कवि चिन्ता ग्रस्त है कि उसे वैराग्यभाव कब उदित होगा - "मेरे मन कब हवै है वैराग'' (द्यानत पद संग्रह, पद २४१) यही सोचते-सोचते वे कह उठते हैं -
'दुविधा कब जै है या मन की'। कब निजनाथ निरंजन सुमिरौ तज सेवा जन-जन की। कब रुचि सौ पीवै दृग चातक, द्वन्दा अखय पद धन की। कब सुभ ध्यान धरौं समना गहि, करूं न ममता तन की । कब घट अन्तर रहे निरन्तर, दिढ़ता सुगुरु वचन की । कब सुख ल्हों भेद परमारथ, मिटै धाना धन की। कब घर खांड़ि होहुं एकांकी, लिये लालसा बन की । ऐसी दसा होय कब मेरी, हौं बलि-बलि वा धन की ।।
- (हिन्दी पद, संग्रह, पद ८०) दौलतराम "हम तो कबहुं न निजगुन आये'' कह 'निज घर नाहिं पिछान्यौ रे' कह उठते हैं। विद्यासागर भी “मैं तो या भव योंहि