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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना भैया भगवतीदास भी आत्म शुद्धि के पक्षपाती थे।" पांडे हेमराज ने इसी तरह कहा कि शुद्धात्म का अनुभव किये बिना तीर्थ स्थान, शिर मुंडन, तप-तापन आदि सब कुछ व्यर्थ है - ''शुद्धातम अनुभौ बिना क्यों पावै सिवषेत''११ वही मोक्ष मार्ग का विशेष साधन है -
भाव बिना द्रव्य नाहि, द्रव्य बिना लोक नाहिं, लोक बिना शून्य सब मूल भूत भाव है। १३
शुद्ध भाव की प्राप्ति हो जाने पर पर पदार्थो से अरुचि हो जाती है, संशयादिक दोष दूर हो जाते हैं, विधि निषेध का ज्ञान हो जाता है, रागादिक वासना दूर होकर निर्वेद भाव जाग्रत हो जाता है। इसलिए शुद्धभाव और आत्मज्ञान के बिना किया गया मिथ्या दृष्टि का करोड़ों जन्मों का बालतप उतने कर्मों का विनाश नहीं कर पाता जितना सम्यग्ज्ञानी जीव क्षण मात्र में कर डालता। इसलिए कवि दौलतराम शुद्ध भाव माहात्म्य को समझकर कह उठते हैं -
मेरे कब है वा दिन की सुधरी । तन बिन वसन असन बिन वन में निवसौ नास दृष्टि घरी ।। पुण्य पाप परसों कब विरचों, परचों निजविधि चिर-बिखरी । तज उपाधि, सज सहज समाधि सहों धाम-हिम मेघ झरी ।। कब थिर-जोग घरो ऐसों मोहि उपल जान मृगखाज हरी । ध्यान-कमान तान अनुभवशर, छेदों किहि दिन मोह अरी।। कब तन कंचन एक गनों अरु, मनि जड़ितालय शैल दरी।। दौलत सदगुरु चरनन सेऊं जो पुरवौ आश यहै कमारी।।१५
भावशून्य बाह्य क्रियाओं का निषेधकर साधक अन्तरंग शुद्धि की ओर अग्रसर होता है। वह समझाने लगता है कि अपने आपको जाने