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रहस्यभावना के साधक तत्त्व
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पुन्य संजोग जुरे रथ पाइक, माते मतंग तुरंग तबेले । मानि विभौ अंगयौ सिरभार, कियो बिसतार परिग्रह ले ले । बंध बढाइ करी थिति पूरन, अन्त चले उठि आप अकेले । हारि हमालकी पोटली डारि कै, और दिवाल की ओट हूँ खेले ।
आत्मचिन्तन के सन्दर्भ में साधक आत्मा के मूल स्वरूप पर उक्त प्रकार से विचार कर उसके साथ कर्मों के स्वरूप पर भी विचार करता है। इस विचारणा से उसक आश्रव-बन्ध की प्रक्रिया ढीली पड़ जाती है, रागादिक भाव शिथिल हो जाते है तथा संवर-निर्जर का मार्ग प्रशस्त हो जाता है ।
६. चित्तशुद्धि
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जैन रहस्य साधना में चित्त शुद्धि का विशेष महत्त्व है। उसके बिना किसी भी क्रिया का कोई उपयोग नहीं । सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति के लिए अन्तः कारण का शुद्ध होना आवश्यक है। जो बाह्यलिंग से युक्त है किन्तु अभ्यन्तर लिंग से रहित है वह फलतः आत्मपथ से भ्रष्ट और मोक्ष पथ का विनाशक है। क्योंकि भाव ही प्रथम लिंग है, द्रव्यलिंग कभी भी परमार्थ प्राप्ति में कारणभूत नहीं होता । शुद्ध भाव ही गुण-दोष का कारण होता है।" बाह्य क्रिया में आत्महित नहीं होता । इसलिए उसकी गणना बन्ध पद्धति में की गई है । वह महादुःखदायी है। योगीन्दुमुनि और मुनिरामसिंह जैसे रहस्य साधकों ने कबीर से पूर्व बाह्य क्रियायें करने वाले योगियों को फटकारा है और अपनी आत्मा को धोखा देने वाले कहा है । चित्त शुद्धि के बिना मोक्ष कदापि प्राप्त नहीं हो सकता ।
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बनारसीदास ने भी यही कहा कि यदि स्व-पर विवेक जाग्रत नहीं हुआ तो सारी क्रियायें आत्मशुद्धि बिना मिथ्या है, निरर्थक है।
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