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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना जाती है तब भी लोग उसे लोहे की ही कहते हैं। इसी प्रकार घी के संयोग से मिट्टी के घड़े को घी का घड़ा कहा जाता है परन्तु वह घड़ा घी रूप नहीं होता, उसी तरह शरीर के सम्बन्ध से जीव छोटा, बड़ा, काला, व गोरा आदि अनेक नाम पाता है परन्तु वह शरीर के समान अचेतन नहीं हो जाता।
खांडो कहिये कनकको, कनक-म्यान-संयोग । न्यारौ निरखत म्यानसौं, लोह कहैं सब लोग ।।७।। ज्यौं घट कहिये धीव कौ, घअ को रूप न धीव । त्यौं वरनादिक नाम सौं, जड़ता लहै न जीव ।।८।।१६
किसनदास (१७ वीं शती) की उपदेश वावनी में जीवन की क्षणभंगुरता और आयुकेपल-पल छीजने का मार्मिक चित्रण हुआहै -
अंजलि के जल ज्यों घटत पलपल आयु विष से विषम विविसाउत विष रस के। पंथ को मुकाम कहु बाय को न गाम यह, जैबो निज धाम तातें कीजे काम यश के। खान सुलतान उमराव राव रान आन, किसिन अजान जान कोऊ न रही सके। सांझ रु विहान चल्यो जात है जिहान तातै, हमहूँ निदान महिमान दिन दस के ।
(डा० हरिप्रसाद गजानन-गुर्जर जैन कवियों की हिन्दी साहित्य को देन पृ० १६८-१७०)
कवि बनारसीदास ने ही मोह मुक्त होने की स्थिति का वर्णन निम्न सवैये में बडी मोहकता के साथ किया है -