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________________ रहस्यभावना के साधक तत्त्व ऐसा उपदेस सुनि चाहिए जगत जीव, शुद्धता संभारे जग जालसौं निसरिकैं।। १०३ 281 मिथ्यात्व कर्म के उदय से जीव अध्यात्म और रहस्य साधना की ओर उन्मुख नहीं हो पाता। वह देह और जीव को अभिन्न मानकर सारी भौतिक साधना करता है।" मोह, ममता, परिग्रह, विषय भोग आदि संसार के कारणों को दूर कर आत्मज्ञानी कर्म - निर्जरा में जुट जाता है। संसारी का मन तृष्णा के कारण धर्म-रूप अंकुश को उसी तरह ही स्वीकार करता जैसे महामत्त गजराज अंकुश से भी वश में नहीं हो पाता। इस मन को वश में करने के लिए ध्यान-समाधि और सद्गुरु का उपदेश उपयोगी होता है। कंचन जिस प्रकार किसी परिस्थिति में अपना स्वभाव नहीं छोड़ता उसे पकाने के बाद शुद्ध कर लिया जाता है। जैसे ही आत्मा का मूल स्वभाव ज्ञान नष्ट नहीं हो सकता, उसे भेदविज्ञान के माध्यम से मोहादि के आवरण को दूर कर परमात्मपद प्राप्त कर लिया जाता है । इस प्रकार चेतन और पुद्गल, दोनों पृथक् हैं । पुद्गल (देह) कर्म की पर्याय है और चेतन शुद्ध बुद्ध रूप है। चेतन और पुद्गल के इस अंतर को भैया भगवतीदास ने बड़े साहित्यिक ढंग से स्पष्ट किया है। इन दोनों में वही अन्तर है जो शरीर और वस्त्र में है । जिस प्रकार शरीर वस्त्र वही हो सकता और वस्त्र शरीर । लाल वस्त्र पहिनने से शरीर लाल नहीं होता । जिस प्रकार वस्त्र जीर्ण-शीर्ण होने से शरीर जीर्ण-शीर्ण नहीं होता उसी तरह शरीर के जीर्ण-शीर्ण होने से आत्मा का निवास रहता है। इसी को कविवर बनारसीदास ने अनेक उदाहरण देकर समझाया है । १०५ सोने की म्यान में रखी हुई लोहे की तलवार सोने की कही जाती है परन्तु जब वह लोहे की तलवार सोने की म्यान से अलग की
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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