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________________ 280 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना देव-धर्म गुरु की ओर से विमुख होता है। कर्मवान् जीव मोही मिथ्यात्वी, भेषधारिकों को गुरु मानने वाला, पुण्यवान् को देव कहने वाला तथा कुल परम्पराओं को धर्म बताने वाला होता है, पर ज्ञानी जीव वीतरागी निरंजन को देव, उनके वचनों को धर्म और साधु पुरुष को गुरु कहता है। कर्मबन्ध से भ्रम बढ़ता है और भ्रम से किसी भी वस्तु का स्पष्टतः भान नहीं हो पाता। मोह का उपशम होते ही विभाव परणितियाँ समाप्त होती जाती हैं तथा सुमति का उदय होता है। उसी से सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र का प्रकाश आता है। शिव की प्राप्ति के लिए सुमति की प्राप्ति ही मुख्य उपाय है। आत्मा का यही मूल रूप है - मोह कर्म मम नाहीं नाहिं भ्रम कूप है, शुद्ध चेतना सिंधु हमारी रूप है।०२ जिस प्रकार कोई नटी वस्त्राभूषणों से सजकर नाट्यशाला में परदे की ओट में आकर जब खड़ी होती है तो किसी को दिखाई नहीं देती पर जब उसके दोनों ओर के परदे अलग कर दिये जाते हैं तो दर्शक उसे स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम हो जाते हैं। वैसे ही यह ज्ञान का समुद्ररूप आत्मा मिथ्यात्व के आवरण से ढंका था। उसके दूर होते ही आत्मा ने अपनी मूल ज्ञायक शक्ति प्राप्त कर ली : जैसे कोऊ पातुर बनाय वस्त्र आमरन, आवति अखारे निसि आडौ पट करिकैं। दुहूं और दीवटि संवारि पट दूरि कीजै, सकल सभा के लोग देखें दुष्टि धरिकैं।। तैंसे ग्यान सागर मिथ्याति ग्रंथि भेदि करि, उमग्यौ प्रकट रह्यो तिहूं लोक भरिकैं।।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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