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________________ रहस्यभावना के साधक तत्त्व 279 अन्तरात्मा विचारता है कि आत्मा और पुद्गल वस्तुतः भिन्नभिन्न हैं पर परस्पर सम्बन्ध बने रहने के कारण व्यवहारतः उन्हें एक कह दिया जाता है। आत्मा और कर्मों का सम्बन्ध अनादिकाल से रहा है। उनका यह सम्बन्ध उसी प्रकार से है जिस प्रकार तिल का खलि और तेल के साथ रहता है। जिसप्रकार चुम्बक लोहे को आकर्षित करता है उसी प्रकार कर्म चेतन को अपनी ओर खींचता है। चेतन शरीर में उसी प्रकार रहता है। जिस प्रकार फल-फूल में सुगन्ध, दूध में दही और घी, तथा काठ में अग्नि रहा करती है। सहज शुद्ध चेतन भाव कर्म की ओट में रहता है और द्रव्य कर्म रूप शरीर से बंधा रहता है। बनारसीदास ने एक उदाहरण देकर उसे स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। कोठी में धान रखी है, धान के छिलके के अन्दर धान्य कण रखा है। यदि छिलके को धोया जाय तो कण प्राप्त हो जायेगा और यदि कोठी (मिट्टी की) को धोया जाय तो कीचड़ बन जायेगी। यहाँ कोठी के रूप में नोकर्म मख हैं, द्रव्य कर्म में धान्य है, भावकर्ममल के रूप में छिलका (चमी) हैं और कण के रूप में अष्ट कर्मो से मुक्त भगवान है। इस प्रकार कर्म रूप पुद्गल को दो भेद हैं - भाव कर्म और द्रव्य कर्म। भाव कर्म की गति ज्ञानादिक होती है और द्रव्य कर्म नोकर्म रूप शरीर को धारण करता है। एक ज्ञान का परिणमन है और दूसरा कर्म का घेर है। ज्ञानचक्र अन्तर में रहता है पर कर्मचक्र प्रत्यक्ष दिखाई देता है। चेतन के ये दोनों भाव क्रमशः शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के रूप हैं। निज गुण-पर्याय के ज्ञानचक्र की भूमिका रहती है और पर पदार्थो के गुणपर्याय में कर्मचक्र कारण रहता है। ज्ञानी सजग सम्यग् दर्शन युक्त कर्मो की निर्जरा करने वाला तथा देव-धर्म गुरु का अनुसरण करने वाला होता है पर कर्मचक्र में रहने वाला घनघोर निद्रालु, अन्धा तथा कर्मो का बन्ध करने वाला
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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