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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
अन्य स्थान पर भी कवि ने शुद्ध चेतन के स्वरूप पर विचार किया है। उह एक ही ब्रह्म है जिसके असंख्य प्रदेश हैं, अनन्त गुण है, चेतन है, अनन्त दर्शन-ज्ञान, सुख- - वीर्यवान है, सिद्ध है, अजर-अमर है, निर्विकार है । इसी को परमात्मा कहा गया हैं । उसका स्वभाव ज्ञान दर्शन है और राग-द्वेष, मोहादि विभाव आत्म परणतियाँ है ।" शिव, ब्रह्म और सिद्ध को एक माना है। ब्रह्म और ब्रह्मा में भी एकरूपता स्थापित की है। जैसे ब्रह्मा के चार मुख होते हैं, वैसे ब्रह्म के भी चार मुख होते हैं - आंख, नाक, रसना और श्रवण । हृदय रूपी कमल पर बैठकर यह विविध परिणाम करता रहता है पर आतमराम ब्रह्म कर्म का कर्ता नहीं। वह निर्विकार होता है। " अनन्तगुणी होता है। " आत्मा और परमात्मा में कोई विशेष अन्तर नहीं । अन्तर मात्र इतना है कि मोह मेल दृढ़ लगि रह्यो तातैं सूझे नाहि । " शुद्धात्मा को ही परमेश्वर परमगुरु परमज्योति, जगदीश और परम कहा है। "
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५. आत्मा और पुद्गल
पुद्गल रूप कर्मों के कारण आत्मा (चेतन) की मूल ज्ञानादिक शक्तियाँ धूमिल हो जाती हैं और फलतः उसे संसार में जन्म मरण करना पड़ता है। यह उसका व्यावहारिक स्वरूप है। स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द प्रकाश धूप, चांदनी, छाया, अधंकार, शरीर, भाषा, मन श्वासोच्छवास तथा काम, क्रोध, मान-माया, लोभ आदि जो भी इन्द्रिय और मनोगोचर हैं वे सभी पौद्गलिक हैं देह भी पौद्गलिक है । मन में इस प्रकार का विचार साधक को भेदविज्ञान हो जाने पर मालूम पड़ने लगता है और वही बहिरात्मा, अन्तरात्मा बन जाता है। अन्तरात्मा सांसारिक भोगों को तुच्छ समझने लगता है और अपनी अन्तरात्मा को विशुद्धावस्था प्राप्त कराने का प्रयत्न करता है ।