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________________ 276 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा। जो शरीर और आत्मा को अभिन्न मानते हैं वह बहिरात्मा है। उसी को मिथ्यादृष्टि भी कहा गया है । वह विधिनिषेध से अनभिज्ञ होता है और विषयों में लीन रहता है। जो भेद विज्ञान से शरीर और आत्मा को भिन्न-भिन्न मानता है वह अन्तरात्मा है। इसी को सम्यक् दृष्टि कहा गया है। बनारसीदास ने इन्हीं को क्रमशः अधम, मध्यम और पंडित कहा है। जिनवाणी पर श्रद्धा करने वाला, भ्रम संशय को करने वाला, समकितवान् असंयमी, जघन्य अथवा अधम, अन्तरात्मा है। वैरागी त्यागी, इन्द्रियदंभी, स्वपरविवेकी और देशसंयमी जीव मध्यम अन्तरात्मा है। तथा सातवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक की श्रेणी को धारण करने वाले शुद्धोपयोगी आत्मध्यानी निस्परिग्रही जीव उत्तम अथवा पंडित अन्तरात्मा है। जो संयोग गुणस्थान पर चढ़कर केवलज्ञान प्राप्त करता है वह परमात्मा है। इसके दो भेद हैं - सकल (सशरीरी) और निकल (अशरीरी)। इन्हीं को क्रमशः अर्हन्त और सिद्ध कहा गया है। त्रिविधिसकल तनुथर गत आतम, बहिरातम धुरि भेद । बीजो अंतर-आतम, तिसरो परमातम अविछेद ।। आतम बुद्धि कायादिक ग्रहयो, बहिरातम अघरूप । कायादिक नो सांखीधर रहयो, आंतर आतम रूप ।। ज्ञानानंद हो पूरण पावनो वरजित सकल उपाध । अतीन्द्रिय गुणगणमणिआगरु इम परमातम साध ।। बहिरातम तजि अंतर आतम रूप थई थिर भाव। परमातम यूँ हो आतमभावकं आतम अरपण दाव।।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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