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रहस्यभावना के साधक तत्त्व
275 कबंध मही पर गिरने लगता है। इस प्रकार सहजभाव का संग्राम होता है और अन्तरात्मा शुद्ध बन जाता है। बनारसीदास ने अन्त में यह निष्कर्ष दिया कि रामायण व्यवहार दुष्टि है और राम निश्चय दृष्टि। ये दोनों सम्यक् श्रुतज्ञान के अवयव हैं -
विराजै रामायण घट माहिं ।। मरमी होय मरम सो जानैं, मूरख मानै नाहिं ।। विराजै आमायण ।।टेक।। आतम 'राम' ज्ञान गुन लछमन 'सीता' सुगति समेत। शुभोपयोग 'वानरदल' मंडित, वर विवेक रणखेत' ।।२।। ध्यान धनुष टंकार शोर सुनि, गई विषयदिति भाग। भई भसम मिथ्यामत लंका, उठी धारणा आग।।३।। जरे अज्ञान भाव राक्षसकुल लरे निकांदित सूर। जूझे रागद्वेष सेनापति संसै गढ चकचूर।।४।। वलखत 'कुंभकरण' भवविभ्रम, पुलकित मनदरयाव। थकित उदार वीर महिरावण' सेतुबंध समभाव।।५।। मिर्छित ‘मदोदरी' दुराशा, जग चरन हनुमान'। घटी चतुर्गति परणति 'सेना' छुटे छपकगुण ‘बान' ।।६।। निरखि सकतिगुन चक्रसुदर्शन उदय विभीषण दीन। फिरै कबंध मही रावण की प्राणभाव शिरहीन।। इह विधि सकल साधु घट अंतर, होय सहज संग्राम। यह विवहारदृष्टि 'रामायण' केवल निश्चय 'राम' ।।
विराजै रामायण।। चेतन लक्षण रूप आत्मा की तीन अवस्थायें होती हैं -
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