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________________ उपस्थापना योगसार । इन ग्रंथों में कवि ने निरंजन आदि कुछ ऐसे शब्द दिये हैं जो उत्तरकालीन रहस्यवाद के अभिव्यजक कहे जा सकते हैं । इन ग्रन्थों में अनुभूति का प्राधान्य है इसलिए कहा गया है कि परमेश्वर से मन का मिलन होने पर पूजा आदि क्रियाकर्म निरर्थक हो जाते हैं, क्योंकि दोनों एकाकार होकर समरस हो जाते हैं । मणु मिलियउ परमेसरहं, परमेसरु विमणस्य । बीहि वि समरसि हूवाहं पुन चडावउं कस्स ।। योगसार, १२।। ३. उत्तरकाल उत्तरकाल में रहस्यवाद की आचारगत शाखा में समयानुकूल परिवर्तन हुआ । इस समय तक जैन संस्कृति पर वैदिक साधकों, राजाओं और मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा घनघोर विपदाओं के बादल छा गये थे । उनसे बचने के लिए आचार्य जिनसेन ने मनुस्मृति के आचारांग को जैनीकृत कर दिया, जिसका विरोध दसवीं शताब्दी के आचार्य सोमदेव ने अपने यशस्तिलकचम्पू में मन्दस्वर में ही किया । इससे लगता है, तत्कालीन समाज उस व्यवस्था को स्वीकार कर चुकी थी । जैन रहस्यवाद की यह एक और सीढ़ी थी, जिसने उसे वैदिक संस्कृति के नजदीक ला दिया। जिनसेन और सोमदेव के बाद रहस्यवादी कवियों में मुनि रामसिंह का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है । उनका ‘पाहुड दोहा' रहस्यवाद की परिभाषाओं से भरा पड़ा है । शिव-शक्ति का मिलन होने पर अद्वैतभाव की स्थिति आ जाती है और मोह विलीन हो जाता है।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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