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________________ हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना का विषय बनाया गया । दर्शन के सभी अंगों पर तर्कनिष्ठ ग्रन्थों की भी रचना हुई । पर इस युग में साधना का वह रूप नहीं दिखाई देता जो आरम्भिक काल में था । साधना का तर्क के साथ उतना सामंजस्य बैठता भी नहीं है । इसके बावजूद दर्शन के साथ साधना और भक्ति का निर्झर सूख नहीं पाया बल्कि सुधारात्मक तत्त्वों के साथ वह भक्ति आन्दोलन का रूप ग्रहण करता गया । इस काल में दार्शनिक उथलपुथल बहुत हुई और क्रियाकाण्ड की ओर प्रवृत्तियां बढने लगीं । "अप्पा सो परमप्पा” अथवा “सव्वे सुद्ध हु सुद्ध णया” जैसे वाक्यों को ऐकान्तिक दृष्टि की ओर खींचा जाने लगा । निश्चय नय और व्यवहार नय के सामञ्जस्य की ओर ध्यान देकर किसी एक पक्ष की ओर झुकाव अधिक हो गया । इस संदर्भ में वृहत्स्वयम्भू स्तोत्र में स्वामी समन्तभद्र का कथन दृष्टव्य है जहां वे कहते हैं कि हे भगवन् ! आपको हमारी पूजा से कोई प्रयोजन नहीं है क्योंकि आप वीतराग हैं और न आपको निन्दा से कोई प्रयोजन है, क्योंकि आपने वैरभाव को समूल नष्ट कर दिया है, फिर भी हम श्रद्धा-भक्ति पूर्वक जो भी आपके गुणों का स्मरण करते हैं वह इसलिए कि ऐसा करने से पाप वासनाओं और मोह-राग द्वेषादि भावों से मलिन मन तत्काल पवित्र हो जाता है । न पूज्यार्थस्त्वयि वीतरागे, न निंदया नाथ विवांतवैरे । तथापिते पुण्य गुण स्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरितां जनेभ्यः ।। इस युग में मुनि योगेन्दु का भी योगदान उल्लेखनीय है । इनका समय यद्यपि विवादास्पद है फिर भी हम उसे लगभग ८ वीं ९ वीं शताब्दी तक निश्चित कर सकते हैं । इनके दो महत्त्वपूर्ण ग्रंथ निर्विवाद रूप से हमारे सामने हैं -- (१) परमात्मसार और (२)
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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