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उपस्थापना
पर उसके भेद-प्रभेदों का वर्णन दिखाई नहीं देता । कुन्दकुन्दाचार्य तक आते-आते इन धर्मो का कुछ विकास हुआ जो उनके ग्रंथों में प्रतिबिम्बित होता है ।
२. मध्यकाल
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कुन्दकुन्दाचार्य के बाद उनके ही पद चिन्हों पर आचार्य उमास्वाति, समन्तभद्र, सिद्धसेन दिवाकर, मुनि कार्तिकेय, अकलंक, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र, मुनि योगेन्दु आदि आचार्यो ने रहस्यवाद का अपनी सामयिक परिस्थितियों के अनुसार विश्लेषण किया । यह दार्शनिक युग था । उमास्वाति ने इसका सूत्रपात किया था और माणिक्यनन्दी ने उसे चरम विकास पर पहुंचाया था । इस बीच जैन रहस्यवाद दार्शनिक सीमा में बद्ध हो गया । इसे हम जैन दार्शनिक रहस्यवाद भी कह सकते हैं । दार्शनिक सिद्धान्तों के अन्य विकास के साथ एक उल्लेखनीय विकास यह था कि आदिकाल में जिस आत्मिक प्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष कहा गया था और इन्द्रिय प्रत्यक्ष को परोक्ष कहा गया था, उस पर इस काल में प्रश्न - प्रतिप्रश्न खडे हुए । उन्हें सुलझाने की दृष्टि से प्रत्यक्ष के दो भेद किये गये - सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष । यहां निश्चय नय और व्यवहार नय की दृष्टि से विश्लेषण किया गया । साधना के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुआ ।
इस काल में वस्तुतः साधना का क्षेत्र विस्तृत हुआ । आत्मा के स्वरूप की खूब मीमांसा हुई । उपयोगात्मकता पर अधिक जोर दिया । गया, कर्मो के भेद-प्रभेद पर मंथन हुआ और ज्ञान - प्रमाण को भी चर्चा